Homosexuality and Unnatural Sex Relations-23 : समलैगिंक बनो और जो कुकर्म करने हैं, करो

    एक सामाजिक चिंतक ने कहा है ‘बेशक समलैगिंक बनो और जो कुकर्म करने हैं, करो। बेशक समलैंगिक बनकर जीवन भर साथ रहो, पर इस अजीब रिश्ते को विवाह का नाम न दो, कम से कम विवाह जैसे पवित्र रिश्ते को गाली मत दो।’

आज अप्राकृतिक यौन संबंध और समलंैगिकता एक जटिल प्रश्न है, किन्तु यह जिस प्रकार हमारे समाज पर हावी होता जा रहा है, उस पर विचार करना बहुत जरूरी हो गया है। जिस मुद्दे की गूंज सुप्रीम कोर्ट तक गूंजी हो और जिस पर सरकारें ने अनेक बार गंभीर चिंतन किया हों, उसे हम इग्नोर नहीं कर सकते। समलैगिंकता को अगर अपराध न भी माना जाए, तो भी यह अनैतिक जरूर है। समलैगिंकता को समाजिक चोला पहनाना उससे भी बड़ा अनैतिक कर्म है। जरा उस दृश्य की कल्पना करके देखिए, जब सभी लोग विवाह जैसी संस्था को छोड़कर केवल आप्राकृतिक सेक्स के लिये समलैगिंक विवाह कर रहे हों। क्या यह दृश्य भयावह नहीं लगता?

आज हम अपने मित्र के साथ आराम से गले में हाथ डालकर रास्ते मंें चल सकते हैं। लेकिन अगर देश में यह कानून बन गया कि समलैंगिक संबंध सही हैं, तो फिर इस फैसले के बाद लोग आपको और आपके दोस्त को देखकर तपाक से कह देंगे ‘देखो-देखो गे कपल जा रहा है। क्या कोर्ट के इस फैसले के बाद दोस्ती शर्मसार नहीं होगी? 

अगर किसी में समलैगिंकता प्राकृतिक रूप से है, तो हमें उससे हमदर्दी ही होनी चाहिए। अगर उसका कोई उपचार है, तो उसे अवश्य करवाना चाहिए। लेकिन अगर शौकिया तौर पर या कोई प्रयोग करने के लिए कोई समलैंगिक 

संबंध स्थापित करे तो उसे कड़ी से कड़ी सजा देनी चाहिए। 

विवाह का मतलब सिर्फ सेक्स नहीं

विवाह का उद्देश्य सिर्फ सेक्स नहीं है, बल्कि संतानोत्पत्ति भी है। बिना संतानोत्पत्ति के विवाह का उद्देश्य अपूरर््ि है। अब आदमी का आदमी के साथ और औरत का औरत से विवाह वो भी सिर्फ आप्रकृतिक सेक्स के लिए, यह तो उचित नही जान पड़ता है। वे आपस में दोस्त बनकर रहंे, सेक्स करंे या भाड़ मे जायें यह उन पर निर्भर करता है, किन्तु ऐसे संबंधों को विवाह का नाम देना विवाह जैसे पवित्र बंधन हो गाली देना होगा। 

दूसरी ओर अगर गंभीरता से चिंतन किया जाए तो यह भी बहुत ही शर्मनाक लगता है कि जिस देश की युवा पीढ़ी गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझ रही है, उस देश में अप्राकृतिक यौन संबंध और समलैंगिकता हॉट इश्यू बन गए हैं। चारों ओर ऐसे संबंधों पर जोरदार चर्चा हो रही है। ऐसे संबंधों के पक्षधर इन्हें प्राकृतिक बता रहे हैं। ऐसे लोग फिर यह बताएं कि अगर ये संबंध प्राकृतिक हैं तो इंसानों को छोड़कर कोई और जीव ऐसे संबंध क्यों नहीं अपनाता? केवल इंसानों में ही ऐसी प्रवृत्ति क्यों है?

 क्या अप्राकृतिक यौन संबंध या समलैंगिक संबंध बनाना समाज में गंदगी फैलाने वाला फैसला नहीं है? ऐसे संबंधों को मान्यता देना जरा भी उचित नहीं है। इसे बदलाव की बयार बताने वाले लोगों की सामाजिक निंदा होनी चाहिए। इसे खुलेआम स्वीकार करने का मतलब है कि मुसीबत को बढावा देना। अन-नैचुरल सेक्स संबंधों से एच.आई.वी. एड्स के साथ-साथ सामाजिक संक्रमर् िभी पैदा होगा, जो किसी भी हाल में उचित नहीं है। ऐसे संबंधों पर अधिक चर्चा ही नहीं की जानी चाहिए। 

वैसे भी यौन चर्चा करना ही भारत में अश्लील है। यौन संबंध की खुली चर्चा तो दूर, यौन रोग भी यहां ‘गुप्त रोग’ कहकर पुकारे जाते हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय में और बाद में सुप्रीम कोर्ट में जब से भारतीय दंड विधान की धारा 377 का मामला गूंजा है, उसी दिन से ही इस ‘वर्जित फल’ पर तीखी बहस छिड़ गई है। कथित सेक्स विशेषज्ञों के अश्लील उपदेश सामने आ रहे हैं। संविधान विशेषज्ञों की बाढ़ आ गई है और वे अधिकांश परस्पर सहमति वाले यौन

संबंधों को कानूनी बता रहे हैं। सिनेमा क्षेत्र में उत्साह है, उन्हें यौन मसाले का ताजा तड़का मिला है। माक्र्सवादी विवेचन सही सिद्ध हुआ है, मुक्त बाजार मुक्त यौन सुख लाया है। विकसित देशों में देह का बड़ा बाजार था ही, बाजार के भूमंडलीकरर् िसे अविकसित-अद्र्धविकसित देश भी मुक्त यौन बाजार के प्रभाव में हैं। लेकिन भारत का मन आहत है। परिवार और विवाह संस्था को खतरा है। समलैंगिक संबंधों के अधिकार के लिए संघर्र्षाें की शुरुआत अमेरिका से हुई थी। अमेरिका भारत की प्रेरर्ाि है, भारत में उसकी पूंजी है। सो मुक्त बाजार के साथ मुक्त देह सभ्यता भी आई है। हाईकोर्ट के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय ने पलट दिया लेकिन सरकार को असमंजस में डाल दिया। 

अमेरीका से विदेशी पूंजी के साथ विदेशी जीवन मूल्य और विदेशी सभ्यता भी आई है। माक्र्सवादी दार्शनिक डा. रामविलास शर्मा ने नोमचोम्सकी जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विद्वानों के हवाले से अमेरिकी समाज की विकृतियां बताते हुए भारत को सावधान किया था- श्श्अमेरिका से पूंजी का आयात होता है। पूंजी के साथ अमेरिकी संस्कृति का भी आयात होता है। भारत में जब तक अमेरिकी पूंजी के आयात को नहीं रोका जाता तब तक नौजवानों पर अमेरिकी संस्कृति के हिंसक प्रभाव को नहीं रोका जा सकता। अमेरिकी पूंजी और सभ्यता के प्रभाव में यहा एक अति आधुनिक उच्च और उच्च मध्य वर्ग का विकास हुआ है। इसका जीवन लक्ष्य भोगवाद है। भोगवाद का चरम यौन भोग है। वे मुक्त यौन सुख को आधुनिकता और सामजिक नियमन को पिछड़ापन बताते हैं। भारतीय संस्कृति और सभ्यता के पक्षधर उनकी नग्न दबंगई के सामने आत्म रक्षार्थ लड़ते हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रभाव के पैरोकार वैसे भी सांप्रदायिक, प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी कहे जाते हंैं। वे समलंैंगिक यौन संबंधों का विरोध करने वाले को सीमाएं याद दिला रहे हैं। एक प्रख्यात योग गुरु को योग की सीमा में ही रहने की हिदायत दी गई है। योग गुरु ने इसे मानसिक बीमारी बताया है।

पहना रहे हैं जामा

बाजारवादी लोग समलैंगिकता को समता, समानता और परस्पर सहमति जैसे शब्दों का जामा पहना रहे हैं तो धार्मिक प्रवक्ता अपनी-अपनी आस्थाओं का हवाला देकर विरोध जता रहे हैं। पैरोकारों के कुतर्क दिलचस्प हैं। एक कुतर्क यह है कि ज्योतिर्विज्ञानी वराहमिहिर ने ‘वृहद्जातक’ में ऐसे संबंधों के ग्रह नक्षत्रीय कारर् िबताए हंैं। वराहमिहिर ने हत्यारों और जघन्य अपराधियों के भी ग्रह नक्षत्रीय कारर् िबताए हंैं, लेकिन उन्होंने इन संबंधों को वैध कब बताया? कामसूत्र के रचयिता वात्स्यायन को भी इसका पैरोकार बताया जा रहा है। बेशक वात्स्यायन ने विकृति जन्य यौनसुख का भी वरर््िन किया है, लेकिन फौरन बाद ऐसे कर्म को अकरर्ीिय-गलत भी बताया और उदाहरर् िदिया, ‘आयुर्वेद कुत्तों के मास को शक्तिवद्र्धक बताता है, लेकिन लोगों को कुत्तों का मास नहीं खाना चाहिए।’ 

संविधानविद् इसके समर्थन में मौलिक अधिकारों का हवाला दे रहे हैं। कोई भी मौलिक अधिकार लोकव्यवस्था के संयम से मुक्त नहीं है। मूल समस्या यौन सुख की अराजक और उद्दंड मांग से ही जुड़ी हुई है। पति-पत्नी का साहचर्य एक आदर्श सामाजिक स्थिति है। इसके परे कोई भी यौन संबंध अपराध है तो इसके भी परे इतर संबंधों की माग दंडनीय क्यों नहीं होनी चाहिए?

आनंद मनुष्य की आदिम अभिलाषा है। सृष्टि सृजन प्रकृति की स्वचालित कार्यवाही है। भारतीय दर्शन में नए जीव के जन्म का बीज ‘काम उर्जा’ है। भारत का काम और पश्चिम का सेक्स पर्यायवाची नहीं है। काम विराट उर्जा है, परम आनंद है, सर्जन की शक्ति है। काम-आनंद के कई स्त्रोत हंैं। सिंगमंड फ्रायड ने काव्य सृजन, लेखन को भी कामकेंद्र का कमाल बताया। फ्रायड से हजारों वर्ष पहले अथर्ववेद में कविता को काम की पुत्री बताया। ऋग्वेद के अनुसार सृष्टि में सर्वप्रथम काम उर्जा ही आई। काम सृष्टि विकास, संतति प्रवाह की उर्जा है। विकासवादी सिद्धात के प्रथम वैज्ञानिक चाल्र्स डारविन ने ‘द ओरिजिन आफ द स्पेसिस एंड द डिसेंट आफ मैन’ (पृष्ठ 467) में लिखा- ‘प्रार्यििों का साैंदर्य बोध मादा को आकर्षित करने तक सीमित रहता है। नर पक्षी जो मधुर तान छेड़ते हैं उससे मादा अवश्य प्रसन्न होती होगी।।’ बुनियादी सवाल यह है कि जब प्रकृति के किसी भी जीव जंतु या वनस्पति में समलैंगिक संबंध नहीं हैं तो मनुष्य में कहा से आ गए? मनुष्य बुद्धि में प्रकृति के साथ विकृति और संस्कृति भी है। भारत ने इस उर्जा को जाना, समझा और सांस्कृतिक बनाया।

वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने अपनी पत्नी मैत्रेयी को भौतिक आनंद का क्षेत्र बताया-‘स्पर्श आनंद का केंद्र त्वचा है, गंध का नासिका, रस का जिह्ना, रूपों का आख, संकल्पों का मन, ज्ञान का हृदय, लेकिन आनंद का केंद्र उपस्थ (कमर) है।’ इसी उपनिषद् में आगे बताया कि इसके लिए पुरुष स्त्री की उपासना करे। स्त्री पुरुष की युति समूचे भारतीय दर्शन में भी छाई हुई है। रमर्,ि सुख के लिए द्वैत चाहिए, परम आनंद के लिए अद्वैत चाहिए। वेदांत का सार है कि सृष्टि सृजन के पूर्व वह (परम तत्व) अकेला था। उसे रमर् िसुख का अभाव था। सो उसने दूसरे की इच्छा की। उसने स्वयं को, सृष्टि को दो भागों में बाटा, आधा स्त्री हुआ और आधा पुरुष। स्त्री-पुरुष सृष्टि प्रवाह के सहायक हैं। वे मिलते हैं, संतति प्रवाह बढ़ता है तो माता-पिता होते हैं। परिवार बनते है। भारत ने इनके मिलन के लिए विवाह संस्था बनाई। प्राचीन दार्शनिक श्वेतकेतु ने एक स्त्री-एक पुरुष (पति-पत्नी) के अतिरिक्त बाकी संबंधों को अवैध ठहराया। 

समलिंगी संबंधों का उद्देश्य देह-सुख है। बाजार हित और मुनाफा है, लेकिन तब परिवार का क्या होगा? ऐसे संबंधों वाले पुरुष अपनी पत्नियों और पत्नियां अपने पतियों से कैसी निष्ठा रखेंगी? विकृत संबंधों वाली यह मांग विवाह विरोधी है, पुरुष विरोधी है, स्त्री विरोधी है, समाज विरोधी भी है।

राष्ट्र या समाज का निर्माण दो वयस्कों का देह अनुबंध नहीं होता। हाब्स, लाक और रूसो सहित सभी विद्वानों के अनुसार समाज का जन्म संयम और व्यवस्था देने के लिए हुआ। भारतीय राष्ट्र का निर्माण विवाह संबंध, परिवारों के सहकार और समान संस्कृति से हुआ। दो वयस्कों के अप्राकृतिक अनुबंध से समाज नहीं चलते। अमेरिका भी इसी बीमारी से परेशान है। अमेरिकन सायकेट्री एसोसिएशन के अनुसार ऐसे लोग सामान्य से 6 गुना ज्यादा मानसिक अवसादग्रस्त होते हैं। अमेरिका की एक टास्क फोर्स की रिपोर्ट (1989) के अनुसार आत्महत्या करने वाले कुल युवकों में 30 प्रतिशत इसी वर्ग के युवा थे। बावजूद इसके अमेरिकी यौन व्यवहार भारत के ‘काम अध्यात्म’ पर आक्रामक है। केंद्र सरकार असमंजस में रही है। सरकार बेशक इस विषय को संसद में लाए, लेकिन आखिरकार संसद राष्ट्र की प्रकृति और संस्कृति के विरुद्ध कैसे जा सकती है?

वर्ष 2013 में तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाब नबी आजाद ने अपने वक्तव्य में समलैंगिकता को एक अप्राकृतिक और गंभीर बिमारी कहकर संबोधित किया। उनके इस कथन से गे और लेस्बियन संप्रदाय के लोगों में रोष उत्पन्न हो गया। लेकिन अगले ही दिन कांग्रेस ने अपने वोट बैंक को बचाने के लिए इस मुद्दे से यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि मीडिया ने उनके इस बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया है। उनका आशय किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं था। खास बात तो यह कि उनके इस बयान का केवल एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाइसेक्युअल और ट्रांसजेंडर) जैसे संप्रदायों से जुड़े लोगों ने ही विरोध नहीं किया बल्कि बॉलिवुड और कईं ऐसे संस्थानों, जो मानवाधिकार के लिए लड़ रहें हैं, उनकी ओर से भी आजाद के इस बयान के विरुद्ध बुलंद आवाजंे उठने लगी थीं। 

वैसे देखा जाए तो राजनीति से कहीं अधिक समलैंगिकता जैसा विषय जिसे हमारे समाज में होमोसेक्युएलिटी के नाम से अधिक जाना जाता है, हमारी भारतीय संस्कृति और इसकी पवित्रता से जुडा हुआ हैं। पश्चिमी देशों से भारत में आई यह एक ऐसी बिमारी हैं, जिसके गंभीर परिर्ािम धीरे-धीरे भारत की संस्कृति और परंपराओं की मजबूत नींव को खोखला करते जा रहे हैं। भारतीय समाज जिसे कभी विश्व के सांस्कृतिक गुरू की उपाधी से नवाजा जाता था, आज अपने ही लोगों के भद्दे और अप्राकृतिक यौन आचरर् िकी वजह से बरसों पुरानी इस पहचान को खोता जा रहा हैं।

कोई नई अवधारणा नहीं है

भारत के संदर्भ में समलैंगिकता जैसा शब्द कोई नई अवधारर्ाि नहीं हैं बल्कि बरसों से यह एक ऐसा प्रश्न बना हुआ हैं जो मनुष्य और उसके मानसिक विकार को प्रदर्शित करता हैं। सन 2009 में जब दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेर्ीि से मुक्त कर दिया था, तब अदालत के इस आदेश से उन लोगों ने तो राहत की सांस ली थी,जो इसमें रूची रखते हैं या ऐसे बेहूदा संबंधों को बुरा नहीं मानकर उनका समर्थन करते हैं। लेकिन नियमों और कानूनों के पक्के भारतीय समाज में इसे किसी भी हाल में स्वीकार नहीं किया जा सकता. ब्रिटिश काल से चले आ रहे आदेशों और कानूनों की बात करें तो उनके जैसे खुले विचारों वाली सरकार ने भी इसे स्पष्ट रूप से मनुष्य द्वारा किया गया एक ऐसा अप्राकृतिक और अस्वाभाविक दंडनीय कृत्य माना था जिसके दोषी पाए जाने पर व्यक्ति 10 साल तक की कैद होने का प्रावधान था। लेकिन जब समलैंगिकता जैसे जघन्य अपराध को कानूनी मान्यता मिल गई तो इससे भारत की बरसों पुरानी छवि और उसकी आन मिट्टी में मिलती प्रतीत हुई, लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने साबित कर दिया कि भारतीय संस्कृति की खिल्ली उड़ाना आसान नहीं। लेकिन वर्ष 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने भी आखिरकार यह फैसला दे ही डाला कि आपसी सहमति से दो व्यस्क लोग समलैंगिक संबंध बनाएं तो यह अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा।

लेकिन दूसरी ओर जब हम आंकडों पर नजर डाले तो पिछले कुछ सालों में समलैंगिकों की संख्या और इस विषय में युवाओं के रूझान में काफी इजाफा हुआ है। धारा 377 के तहत कानूनी संरक्षर् िमिलना इसका एक सबसे बड़ा कारर् िरहा। क्योंकि जो संबंध हमेशा समाज की नजर से छुपाए जाते थे, वे सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद  खुले-आम उनका प्रदर्शन होने लगा है।  कहने की जरूरत नहीं है कि ऐडस और एचआईवी जैसी यौन संक्रमित बिमारियों में आती बढोतरी का कारर् िभी ऐसे ही संबंधों की स्वीकार्यता है। निश्चित रूप से इसे दी गई कानूनी मान्यता मानव समाज, उसके स्वास्थ्य और मानसिकता पर भारी पड़ी।

गंभीर परिणाम भोगने पड़ते हैं

यौन वरीयता मनुष्य का अपना व्यक्तिगत मामला हो सकता है, लेकिन एक इसी आधार पर उसे पूरर््ि रूप  से स्वतंत्र नहीं छोड़ा जा सकता। इसके समर्थन से जुड़े लोगों का यह तर्क हैं कि व्यक्ति का आकर्षर् िकिस ओर होगा यह उसकी मां के गर्भ में ही निर्धारित हो जाता हैं और अगर वह समलिंगी संबंधों की ओर आकृष्ट होते हंैं तो यह पूरर््ि रूप से स्वाभाविक व्यवहार माना जाना चाहिए। लेकिन यहां इस बात की ओर ध्यान देना जरूरी है कि जब प्रकृति ने ही महिला और पुरुष दोनों को एक दूसरे के पूरक के रूप में पेश किया हैं, तो ऐसे हालातों में पुरुष द्वारा पुरुष की ओर आकर्षित होने के सिद्धांत को मान्यता देना कहां तक स्वाभाविक माना जा सकता हैं। इसके विपरीत समलैंगिकता जैसे संबंध स्पष्ट रूप से एक मनुष्य के मानसिक विकार की ही उपज हैं। यह एक ऐसे प्रदूषर् िकी तरह है, जो धीरे-धीरे जो प्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष ढ़ंग से पूरे भारतीय समाज को अपनी चपेट में ले रहा हैं। यह पूरर््ि रूप से अप्राकृतिक हैं, और हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि जब भी हम प्रकृति के विपरीत कोई काम करते हैं तो उसके गंभीर परिर्ािम भोगने ही पड़ते हैं।

भारतीय समाज में संबंधों की महत्ता इस कदर व्याप्त है कि कोई भी रिश्ता व्यक्तिगत संबंध के दायरे तक ही सीमित नहीं रह सकता। विवाह को एक ऐसी संस्था का स्थान दिया गया हैं, जो व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता होने के साथ ही उसके परिवार के विकास के लिए भी बेहद जरूरी हैं। और ऐसे अदालती फरमान भारतीय समाज और पारिवारिक विघटन की शुरुआत को दर्शा रहा है। शारिरिक संबंधों को केवल एक व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में रखना भले ही उसकी अपनी स्वतंत्रता के लिहाज से सही हों, लेकिन सामाजिक दृष्टिकोर् िमें पूरर््ि रूप से गलत होगा। केवल मौज-मजे के लिए समलिंगी संबंध बनाना और समलैंगिता के समर्थन में निकाली गई किसी भी परेड़ का समर्थन करना ऐसे किसी भी समाज की पहचान नहीं हो सकती जो अपनी परंपरा और संस्कृति के विषय में गंभीर हों और भारत जैसे सभ्य समाज में ऐसी स्वच्छंद उद्दंडता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

समलैंगिकता को वैध घोषित किए जाने पर शोर-शराबा तो होना ही था। सो हुआ और खूब हुआ। 

तीन वर्गोें को समझना होगा

समलैंगिकता की स्थिति को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। पहला परिस्थितिजन्य, जिसमें यह तब विकसित होती है जब पुरुष या महिला अपने विपरीत लिंगी साथी से दूर रहते हैं और उनका झुकाव अपने समलिंगी मित्र के साथ हो सकता है। अक्सर सेना या लड़के-लड़कियों के हॉस्टलों में इसकी संभावना ज्यादा रहती है। दूसरा, वह जो उस परिस्थिति में विकसित होता है जब कोई व्यक्तित्व विपरीत सेक्स वाले व्यक्तित्व का साथ पसंद नहीं करता है। इसकी वजह कोई मनोवैज्ञानिक या कोई असामान्य व्यवहार हो सकता है। तथा, तीसरा वर्ग उन आधुनिक लोगों का है जो सेक्स के मामले में भी ‘प्रयोगधर्र्मी’ हैं। चाहे खाने-पीने की बात हो, या संबंधों की... यह वर्ग प्रयोग को प्राथमिकता देता है। और, शायद यह वर्ग संख्या में सबसे अधिक है। पहले दो वर्ग तो संख्या में बहुत कम होंगे। यह तीसरा वर्ग ही सबसे अधिक अप्राकृतिक यौन संबंध और समलैंगिकता को फैला रहा है। बात अगर समस्या की की जाए, तो पहले व दूसरे वर्ग वाले लोग इस दायरे में आते हैं। इस वर्ग के लोगों के बीच पनपे संबंधों को हेय दृष्टि से देखने का रिवाज है। और उन्हीं को उनका हक दिलाने की मांग की जाती है ताकि समाज में उन्हें अपमान का सामना न करना पड़े। जहां तक तीसरे वर्ग का सवाल है तो उसकी वजहें दूसरी हैं। उनके लिए अप्राकृतिक यौन संबंध और समलैंगिकता मात्र ‘मनोरंजन’ का एक विषय है। अब वह जमाना नहीं रहा, जब लोग सेक्स का मतलब परिवार को बढ़ाने का साधन मानते थे। अब सेक्स तो एंजायमेंट या मौज-मस्ती का सबसे बड़ा साधन बन गया है। हम चाहें तो कह सकते हैं कि शायद हम उस युग में हैं जिसमें किसी भी समय, कहीं भी, किसी के साथ सेक्स किया जा सकता है। सेक्स अब एक ऐसी भौतिक गतिविधि बन चुका है जिसमें शायद भावनाओं के लिए जगह कम ही है।

इस समय वह युग चल रहा है, जिसमें अधिक पैसा आ जाने पर व्यक्ति का ध्यान इससे सेक्स खरीदकर एंजाय करने का बन जाता है। अमीरी आते हीं, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, उसके कदम किसी न किसी रूप में सेक्स को खरीदकर  उसका मनमाने तरीके से प्रयोग करने की ओर चल देते हैं। यहां बात केवल सेक्स की नहीं है, बल्कि सेक्स के विभिन्न प्रयोगों की है, जिसमें अप्राकृतिक यौन 

संबंध और समलैंगिकता भी शामिल है। यही कारण है कि कुछ मुट्ठी भर और अति प्रभावशाली लोग भारत में समलैंगिकता को कानूनी बनाने का कुप्रयास करते रहे हैं। इसे मानवाधिकार का मुद्दा तक बता चुके हैं। इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि 120 करोड़ की आबादी वाले इतने बड़े देश की परंपराओं को ताक पर रखकर केवल यहां रहने वाले 25 लाख लोगों के लिए ; ये आंकड़े भी बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए हो सकते हैंद्ध, के हक में कानून बनाने की चर्चाएं चल रही हैं। यानि केवल तथाकथित 25 लाख लोग 120 करोड़ की आबादी  पर हावी कैसे हो गए?

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत अपनी विशाल संस्कृति, मर्यादापूर्ण आचरण, संयम और महान परंपराओं के बलबूते पूरे विश्व में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहां समाज में आज भी मर्यादित सेक्स को ही मान्यता प्राप्त है, अप्राकृतिक यौन संबंधों और समलैंगिकता को नहीं। जो मुट्ठी भर लोग सेक्स को मजाक बना रहे हैं और ऐश-परस्ती या मनोरंजन के लिए अप्राकृतिक यौन संबंधों और समलैंगिकता जैसी विकृति को देश मैं फैलाना चाहते हैं, उनसे सख्ती से निपटना होगा। इस बुराई को रोकने के लिए हम सभी को मिलकर देश में निम्नलिखित उपाय लागू करवाने में सहयोगी बनना होगा।

1ण् सेना और जेल जैसे स्थानों पर रहने वाले लोगों को योगा, अनुशासन व संयम की विशेष शिक्षा दी जाए तथा इन्हें अप्राकृतिक यौन संबंधों या समलैंगिकता से होने वाली बीमारियों के खिलाफ जागरूक किया जाए। जेल जैसे स्थानों पर जैसा कि पंजाब सरकार प्रयास कर रही है, हर राज्य सरकारें कैदियों के लिए पत्नी से सेक्स संबंध बनाने की छूट देने पर विचार करें। सेना के जवानों को समय-समय पर घर जाने की छुट्टी मिलनी चाहिए और जिन स्थानों पर सुविधा हो, उन्हें उनका परिवार साथ रखने की अनुमति दी जाए।

2. यौन शिक्षा को स्कूलों में बच्चों की उम्र के अनुसार कक्षाओं में लागू किया जाना चाहिए ताकि बच्चे यौन शोषण से बच सकें तथा उनमें जागरूकता आ सके। इसके साथ ही स्कूलों में योगा, मेडीटेशन, अनुशासन व संयम की शिक्षा देनी चाहिए।

3.इंटरनेट से अश्लील बैबसाईटें हटाई जाएं तथा सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी कड़ी निगरानी रखी जाए ताकि विकृत सेक्स की तरफ लोगों का ध्यान न जाए। अश्लील साहित्य पर कड़ी रोक लगाई जाए।

4. अप्राकृतिक यौन संबंध और समलैंगिकता से जुड़ी भारतीय दंड संहिता की धारा 377 का स्वरूप बरकरार रखा जाए। इसे हटाना तो दूर, इसके तहत सजा भी कम नहीं की जानी चाहिए।

5. पुरुष वैश्यावृति, गे क्लब, मनमाने यौन संबंधों को जन्म देते मसाज पार्लर व डांस बार आदि को पूर्णतया प्रतिबंधित किया जाए।

6. जिन लोगों में यह विकृति जन्मजात है, उनका हर संभव उपचार किया जाना चाहिए तथा उनका रूझान प्राकृतिक सेक्स की ओर किया जाना चाहिए।

7. जो लोग केवल मनोरंजन या ऐश-परस्ती के लिए ही अप्राकृतिक यौन 

संबंध या समलैंगिक संबंध बनाते हैं, उनसे सख्ती से निपटना चाहिए।

8. मीडिया को चाहिए कि वह इस तरह के विकृत सेक्स को अधिक तवज्जोे न दे तथा भारतीय मूल्यों व संस्कृति को जिंदा रखने में अपनी विशेष भूमिका अदा करे।

9. स्वास्थ्य विभाग को भी चाहिए कि वह अप्राकृतिक यौन संबंधों और समलैंगिकता से होने वाले रोगों के खिलाफ अधिक से अधिक प्रचार करे।

J.K.Verma Writer

9996666769

jkverma777@gmail.com

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