Homosexuality and Unnatural Sex Relations-10 : अप्राकृतिक यौन संबंधों ने करियर तबाह किया है

      भारत में एक कहावत है कि शेर चाहे कितना भी भूखा क्यों न हो, वह घास नहीं खाता और गाय चाहे कितनी भी भूखी क्यों न हो, वह कभी मांस नहीं खाती और इंसान को चाहे कितनी ही कामवासना क्यों न सता रही हो, वह अप्राकृतिक ढंग से या समलैंगिक यौन संबंध नहीं बनाता।

अगर भारतीय समाज में कोई अप्राकृतिक यौन संबंध या समलैंगिक संबंध बनाता है तो उसका सामाजिक स्टेटस बहुत ही बुरी तरह से प्रभावित होता है। ऐसे व्यक्ति का खुलासा होने पर उसे अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। प्रायः उसका सोशल बॉयोकॉट हो जाता है। ऐसे व्यक्ति से संबंध विच्छेद कर लिए जाते हैं तथा उसे अपने घर में नहीं घुसने दिया जाता। सामाजिक सम्मान केवल उसी व्यक्ति का होता है, जो यौन संबंधों के मामले में प्राकृतिक और मर्यादित आचरण करता है।

  भारत में समलैंगिकता केवल पश्चिम का अंधानुकरण माना जाता है। अधिकांश पश्चिमी देशों में अप्राकृतिक यौन संबंध और समलैंगिकता आम बात हैं। इन देशों में समलैंगिक शादियां होती हैं। लेकिन ऐसी शादियों में संपत्ति विवाद भी खुलकर होते हैं। एक विख्यात महिला टेनिस खिलाड़ी पर उसकी एक समलैंंिगक दोस्त ने पिछले दिनों संबंध विच्छेद होने पर संपत्ति में हिस्से के लिए मुकदमा कर दिया था। इस प्रकार कई मामले सामने आते रहते हैं। चूंकि यूरोप में विवाह और परिवार संस्था के प्रति भारत जैसा कोई विशेष भाव नहीं है और वहां विवाह और परिवार दोनो में केवल और केवल शारीरिक संबंध बनाने और संपत्ति को परस्पर मिलकर उपभोग करने का भाव ही देखा जाता है, इसलिए वहां समलैंगिक संबंधों और उसमें होने वाले संपत्ति विवादों को विशेष महत्व नहीं दिया जाता है। हांलाकि ऐसा नहीं है कि समलैंगिक संबंध वहां भी सहजता से स्वीकार्य हैं, परंतु विवाह का विशेष महत्व नहीं होने और काम वासना ही उसका मुख्य ध्येय होने के कारर् िवहां इसका प्रचलन बढ़ा है।

राजधानी दिल्ली के एक प्रसिद्ध दैनिक समाचार पत्र ने लिखा है कि अधिकांश चिकित्सक और मनोवैज्ञानिक इस बात पर एकमत हैं कि समलंैंगिकता एक सामान्य और प्राकृतिक व्यवहार है। सामाजिक चिंतकों ने इस पर आपत्ति जताते हुए प्रतिक्रिया व्यक्ति की है कि इस अखबार को यह भी लिखना चाहिए था कि इस अधिकांश शब्द में में केवल कुछ एलोपैथी के चिकित्सक और चंद मनोवैज्ञानिक ही शामिल किए गए हैं। भारतीय परंपरा के मनोवैज्ञानिक तो इसे नितांत ही अप्राकृतिक कृत्य मानते हैं। यदि यह प्राकृतिक व्यवहार होता तो प्रकृति में अन्यत्र भी इसके उदाहरर् िमिलते। परंतु मनुष्यों और वह भी कुछेक बीमार मानसिकता के मनुष्यों के अलावा किसी भी प्रजाति में समलैंगिक संबंध नहीं पाए जाते। मनुष्यों में भी जिनमें ये संबंध बनते हैं, उन्हें विभिन्न प्रकार के यौन रोग होने का खतरा बना रहता है। इसके अतिरिक्त समलैंगिक पुरूष संबंधों में यौन क्रिया करने के लिए जिस अंग का प्रयोग होता है, यानी कि गुदा का, वह इस कार्य के लिए बनी ही नहीं है। उसे अपने देश में मलद्वार कहा गया है। एलोपैथी के डाक्टर जो गुदा मैथुन का समर्थन करते हैं, वे भी इसके लिए अतिरिक्त सावधानियां बरतने की सलाह देते हैं। परंतु क्या दुनिया का कोई भी डाक्टर यह कह सकता है कि गुदा का कार्य मैथुन है? यदि नहीं तो इसे प्राकृतिक कैसे माना जा सकता है? और तो और एलोपैथी के चिकित्सकों और मनोवैज्ञानिकों ने भी समलैंगिक संबंधों के दुष्परिर्ािमों को आज स्वीकार कर लिया है। वे भी मानते हैं कि समलैंगिक संबंधों से सर्वाधिक प्रकार के यौन रोग फैलते हैं। एड्स उनमें से एक प्रमुख रोग है जो पैदा ही समलैंगिक संबंधों के कारर् िहुआ है। इस प्रकार कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अप्राकृतिक यौन संबंध इंसान के सोशल स्टेट्स को इतना प्रभावित करता है कि भारत जैसे समाजों में तो वह कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहता। 

करियर पर बुरा असर 

अप्राकृतिक यौन संबंधों ने न जाने कितने ही लोगों के करियर को तबाह किया है। अमेरीका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का मोनिका लेविंस्की से ओरल सेक्स चर्चा का विषय बना, जिससे उनका करियर प्रभावित हुआ। हालांकि वे अमेरीका के राष्ट्रपति थे और उनके सार्वजनिक माफी मांगने से मामला शांत हो गया। अगर वे भारत के राष्ट्रपति होते तो यह मामला बहुत महंगा पड़ता। जाने-माने संत और भगवान का रूप माने जाने वाले आसाराम के खिलाफ सात लड़कियों से ओरल सेक्स का मामला सामने आया तो लोगों के दिलों में नफरत पैदा हो गई। उनका तथा उनके बेटे नारायण साईं का करियर देखते ही देखते चौपट हो गया। पुस्तक लिखे जाने तक वे जेल में हैं। हरियाणा के के पूव मंत्री गोपाल कांडा के गीतिका से अप्राकृतिक यौन संबंधों का खुलासा हुआ तो लोगों ने उनके बारे में खूब बुरा-भला कहा और उनका राजनीतिक करियर दॉव पर लग गया। जानी मानी अभिनेत्री एलिजाबेथ लेघ गार्नर ने जब एक बारह वर्ष के लड़के के साथ अप्राकृतिक दुराचार किया तो उसका भविष्य दॉव पर लग गया।  इस तरह के न जाने कितने मामले सामने आए हैं, जब अप्राकृतिक यौन संबंध किसी के करियर के लिए घातक बन गया।

भारत की संस्कृति ही ऐसी है, जिसमें अप्राकृतिक यौन संबंधों के लिए कोई जगह नहीं है। इस तरह के संबंध बनाने वाले व्यक्ति को निकृष्ट दर्जे का व्यक्ति करार दिया जाता है तथा उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है। अनेक मामलों में कानून व समाज ऐसे व्यक्तियों को कड़ा दंड भी देता है। बहरहाल बात दंड की नहीं हो रही, बल्कि करियर तबाह होने की चल रही है। आज तक जिन सेलेब्रिटीज या हाई प्रोफाइल लोगों पर अप्राकृतिक यौन संबंधों का दाग लगा है, उससे उनके करियर पर बुरा असर जरूर पड़ा है। भारत में तो ऐसे संबंधों का जब भी खुलासा हुआ है, समाज ने इसका कड़ा विरोध किया है।

निजी रिश्तों के लिए घातक

अप्राकृतिक यौन संबंध या समलैंगिक संबंध निजी रिश्तों के लिए भी घातक हैं। अगर किसी के साथ आपके अच्छे संबंध हैं और उसे पता चलता है कि आप अप्राकृतिक यौन संबंधों के पक्षधर हैं तो वह आपसे एक निश्चित दूरी बना लेगा। अगर आपके  उसके साथ पारीवारिक संबंध हैं, तो वह पूरी कोशिश करेगा कि आप उसके परिवार से न मिलें। वह अपने परिवार को आपका परिचय नहीं देना चाहेगा और कभी नहीं चाहेगा कि आप उसके घर पर आएं। याद रखने वाली बात यह है कि अगर वह व्यक्ति खुद भी अप्राकृतिक संबधों में रुचि रखता होगा, तो भी अपने परिवार को आपसे दूर ही रखेगा। चाहे स्वयं आपके साथ घनिष्ठता का हाथ बढ़ा दे। 

जाने-माने समाजशास्त्री धर्मचंद गिरधर कहते हैं कि भारत सरकार को भूलकर भी समलैंगिक संबंधों को मंजूरी नहीं देनी चाहिए, वर्ना दोस्ती के रिश्ते पर भी संकट के बादल तैरने लगेंगे। आज अगर दो लड़के या दो लड़कियां एक दूसरे के गले में बाहें डालकर बैठती हैं तो इसे सामान्य बात कहा जाता है। लेकिन बाद ेंउन्हें गे और लेस्बियन माना जा सकता है। आज दो युवक अगर एक कमरे में बंद हैं, तो उन पर शक नहीं किया जाता और न ही दो सहेलियां अगर एकांत में हैं तो उनके संबंधों पर कोई ऐतराज किया जाता है। फिर इन्हें देखने का नजरिया ही बदल जाएगा। अन्य देशों में जहां समलैंगिकता को मंजूरी दी गई है, वहां अगर कोई लड़का लड़के के या लड़की लड़की के गले में बाहें डाले घूम रही हो तो उन्हें गे या समलैंगिक ही मान लिया जाता है। भारत में फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं आई, लेकिन आ सकती है।

पारीवारिक रिश्तों के लिए भी खतरनाक

भारत व इससे मिलती-जुलती संस्कृति रखने वाले देशों में अप्राकृतिक संबंध रखना पारीवारिक रिश्तों के लिए भी अत्यंत खतरनाक है। अगर एक पति को यह पता चल जाए कि उसकी पत्नी समलैंगिक है या एक पत्नी को पता चल जाए कि उसका पति समलैंगिक है तो उनका रिश्ता खत्म होने में देर नहीं लगेगी। इसके अलावा अधिकांश भारतीय पत्नियां अप्राकृतिक यौन संबंधों को पसंद नहीं करतीं। अगर उनका पति मुख मैथुन या गुदा मैथुन की मांग करता है तो वे इसे हर तरह से टालने का प्रयास करती हैं। इससे केवल पति-पत्नी का ही रिश्ता नहीं टूटेगा, बल्कि परिवार के अन्य लोग भी ऐसे व्यक्ति से संबंध विच्छेद कर लेंगे ओर वह व्यक्ति परिवार से अलग हो जाएगा। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अप्राकृतिक यौन संबंध पारीवारिक रिश्तों के लिए भी अत्यंत खतरनाक हैं। 

सच्चाई यह है कि अगर कुछ पाश्चात्य देशों का जिक्र छोड़ दिया जाए तो अप्राकृतिक यौन संबंध व्यक्ति के सोशल स्टेट्स, करियर, सामाजिक संबंधों, निजी संबंधों और पारीवारिक संबंधों के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकते हैं। इसके अलावा इनसे लाइलाज रोग भी हो सकते हैं। इसलिए मेडीकल साइंस के अधिकांश एक्सपर्ट इनसे बचने की सलाह देते हैं। लेकिन साथ ही वे ये भी कहते हैं कि अगर ऐसे संबंध बनाने जरूरी हैं, तो सुरक्षित यौन संबंध ही बनाएं। यानि यौन संबंध बनाते समय कंडोम जैसे संसाधनों का अवश्य प्रयोग करें ताकि बीमारियों से रक्षा हो सके।

विवाह पर लगेगा प्रश्नचिन्ह

कुछ लोग कहते हैं कि समलैंगिकता अपराध नहीं है। ईश्वर ने कुछ लोगों की प्रवृति ही ऐसी बनाई है। हो सकता है, यह कुछ हद तक सही हो। तो फिर क्या समलैंगिकता को कानूनी या सामाजिक चोला पहना देना चाहिए? अगर ऐसा किया गया तो अनैतिकता का ऐसा भयावह दृश्य पैदा हो जाएगा, जिसकी कल्पना करना भी उचित नहीं है। अगर उन्हें कानूनी या सामाजिक मान्यता दे दी गई, तो फिर  समलैगिंक विवाह को भी मान्यता देनी पड़ेगी, जिसका साफ सा मतलब होगा संतान की इच्छा विवाह का आधार नही होगा।

यह तो मानना ही होगा कि समलैंगिक किसी दूसरी दुनिया के लोग नहीं हैं। वे भी इंसान हैं। हो सकता है, आम लोगों से अधिक ईमानदार और मेहनती इंसान हों। समलैंगिक सेक्स कोई नया विषय नहीं है। यह पहले भी होता था, आज भी होता है। लेकिन आज जिस तरह इसे मुद्दा बनाया जा रहा है और धारा 377 को पूरी तरह से हटवाने के लिए कुचक्र रचे जा रहे हैं, उसे देखकर साफ लगता है कि भारतीय परंपराओं और सभ्यता पर खुलेआम कुठाराघात किया जा रहा है। विदेशी तर्ज पर भारत में समलैंगिक विवाहों पर मान्यता या मंजूरी मांगी जा रही है। इतना तक नहीं सोचा जा रहा कि भारतीय लोगों की सोच कैसी है? वे ऐसे संबंधों को क्या मानते हैं? भारतीय परंपराओं में विवाह का उद्देश्य सिर्फ सेक्स करना ही नही होता, बल्कि संतानोत्पत्ति भी होता है। अगर विवाह के बाद संतानोत्पत्ति नहीं की जाती, तो उसका उद्देश्य अधूरा माना जाता है। ऐसे में आदमी का आदमी के साथ और औरत का औरत से विवाह आखिर क्या कहलाएगा और वह भी  सिर्फ आप्रकृतिक सेक्स के लिए? भारतीय समाज को इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि दो दोस्त या सहेलियां एकांत में आपसी सहमति से क्या करते हैं। अगर वे सेक्स भी करते हैं, तो इसका प्रायः पता नहीं चलता। पता चल भी जाए तो बात को रफा-दफा कर दिया जाता है। परेशानी तब होती है, जब ऐसा जबरदस्ती से या फिर किसी बच्चे के साथ किया जाए। लेकिन ऐसे संबंधों को आखिर विवाह का नाम कैसे दिया जा सकता है? क्या यह विवाह जैसे पवित्र बंधन को गाली देना नहीं होगा? 

जो लोग नैतिकता के पक्षधर हैं, उन्हें समलैंगिक संबंधों में नैतिकता साफ-साफ खतरे में पड़ती दिखाई दे रही है। उनका कहना है कि परदे के पीछे चाहे जो नरक करना हो करो, सामने आकर समाज के ढांचे को क्यों बिगाड़ते हो। इससे जो परिवार नामक संस्था चल रही है, उस पर क्यों कुठाराघात करते हो? भारतीय समाज को यूरोपीय समाज में क्यों बदलने पर तुले हो?

यूरोपीय देशों का दखल

सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता पर कानून बनाने के लिए गेंद को सरकार के पाले में खिसकाया तो तत्कालीन सरकार ने कहा कि इस बारे में समाज के सभी वर्गों की राय जानने के बाद ही कुछ करेंगे। यानि इस मुद्दे को टालने का प्रयास किया क्योंकि सरकार अच्छी तरह से जानती थी कि अगर समाज के सभी वर्र्गोंें की राय ली गई तो ऐसा कोई कानून बनाने की स्थिति बन ही नहीं सकती। अगर 

लेकिन दूसरी तरफ यूरोपीय देश सीधे-सीधे भारत में दखल दे रहे हैं तथा समलैंगिकों के लिए कानून न बनाना व धारा 377 को खत्म न करना व्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा संवैधानिक अधिकार मानते हैं। उनका साफ कहना है कि भारत में रहने वाले लोगो को व्यक्तिगत पसंद चुनने का हक मिलना चाहिए। लेकिन सभी जानते हैं कि उनके देशों के समाजों और भारतीय समाज में दिन-रात का फर्क है।  यहां इस तरह की व्यक्तिगत आजादी का कोई मसला है ही नहीं। यह लगभग निश्चित है कि इस तरह के संबंधों को छूट देने से देश की कानून व्यवस्था बिगड़ेगी।  समाज में अराजकता भी फैलेगी और तरह-तरह की बीमारियां भी फैलेंगी। 

समलैंगिकों का तर्क है कि आखिर दो व्यक्तियों में प्रेम होना अपराध कैसे हो सकता है? ऐसे लोगों को प्रेम की परिभाषा का ही पता नहीं है। प्रेम और वासना में दिन-रात का फर्क है। अप्राकृतिक संबंधों के पक्षधरों ने दिल्ली समेत कई शहरों में दिल्ली के उच्च न्यायालय का फैसला और बाद में सुप्रीम कोर्ट का फैसला उनके हक में आने पर खुशियां मनाई थीं।   

समलैंगिकों की हमेशा मांग रही है कि जिसके साथ वे सेक्स के मामले में कंफर्टेबल हैं, उसके साथ जीवन शुरु करने की अनुमति उन्हंे मिलनी ही चाहिए। उनकी मांग है कि सामाजिक व्यवस्था भी ऐसी बनें कि लोग उन्हेंे हीन नजर से न देखें। घर, परिवार व समाज के लोग उनकी समस्या को समझें।  अनेक समलैंगिक जोड़ों ने बच्चे तक गोद लिए हैं, परिवार बनाया है। कहां हैं समस्या? उनका यह भी कहना है कि उनके पक्ष में कानून बनते ही सारे लोग इसी रास्ते पर थोड़े ही चल पड़ेंगे। जो जैसा है, वह वैसा ही जीवन चुनेगा। बस एक समानांतर दुनिया जरूर बन जाएगी जो आपसे ज्यादा खुली और आजाद होगी। कुंठा रहित।

नजरिया बदलना मुश्किल है

सच्चाई यह है कि अप्राकृतिक यौन सबंध बनाने वाले लोग चाहे जितने भी तर्क दें, अधिकांश भारतीय लोगों का नजरिया बदलने वाला नहीं है। भारतीय संस्कृति की यहां के समाज में इतनी गहरी जड़ें हैं, जिन्हें नहीं उखाड़ा जा सकता। समाज के कुछ लोग यह तर्क भी देते हैं कि समलैंगिक संबंध इसलिए पैदा हो जाते हैं क्योंकि भारतीय समाज ने सेक्स पर अनेक तरह के प्रतिबंध लगा रखे हैं। प्राचीन युग में भारत में सेक्स संबंध बनाने पर छूट होती थी, इसलिए लोग अप्राकृतिक तरीकों का सहारा नहीं लिया करते थे। जैसे-जैसे भारत में सेक्स पर प्रतिबंध लगता चला गया, महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ गया और समलैंगिकों की संख्या में इजाफा होता चला गया। उनका कहना है कि जिस काम के लिए मना किया जाए, वह काम इंसान ज्यादा करता है। लेकिन ऐसे लोगों को यह अच्छी तरह से जान लेना चाहिए कि जिन देशों में सेक्स संबंधों पर छूट है, सबसे अधिक महिलाओं के खिलाफ अपराध वहीं हो रहे हैं तथा समलैंगिक भी सबसे अधिक उन्हीं देशों में हैं। और ऐसा बिल्कुल नहीं है कि जिस काम के लिए मना किया जाए, उसे व्यक्ति अधिक करता है। भारत में सेक्स संबंधों पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाता, बल्कि लोगों को जागरूक किया जाता है। उन्हें समझाया जाता है कि समाज के नियमों के खिलाफ जब इस तरह के संबंध बनाए जाते हैं, तो वह नैतिकता के खिलाफ होते हैं और इससे इंसान की प्रतिष्ठा कम होती है। इसलिए ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि सेक्स पर प्रतिबंध लगाने के बाद समलैंगिकता बढ़ी है।

भारत कोई पश्चिमी देश नहीं है, जहां लोगों को खुला सेक्स करने की छूट दी जाए। भारतीय समाज की अपनी मान्यताएं व परंपराएं हैं। वैसे भी भारत में लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता मिली हुई है। जिसने बालिग होने के बाद अपनी पसंद के साथी से शारीरिक रिश्ता बनाना है, वह बनाता ही है। लेकिन वह रिश्ता प्राकृतिक होता है, अप्राकृतिक नहीं। दूसरा यौन संबंध जब आपसी सहमति से बनाए जाते हैं तो उसमें ज्यादा परेशानी नहीं होती। परेशानी हमेशा जोर-जबरदस्ती से ही होती है। 

भारत की 80 प्रतिशत जनता भारतीय परिवेश में ढ़ली हुई है, वह अपने मित्र-मंडली मे खूब खुलकर रह सकती है और विभिन्न मुद्दांे पर चर्चा कर सकती है। कुछ मैट्रो सिटीज में रहने वाले माडर्न लोगों का जिक्र छोड़ दिया जाए तो यहां आज भी पारिवारिक मूल्यों की मान्यता विद्यमान है। यही पारिवारिक मूल्य ही भारत की मजबूत सांस्कृतिक स्तंभो की मजबूती का कारर् िभी है। आज भी जो युवा कोई गलत काम करते हैं, उन्हें हर समय यह डर बना रहता है कि उनके परिवार वालों को इसका पता न चल जाए। यहां आज भी उम्र में बड़े लोगों का सम्मान व लिहाज किया जाता है, न कि पश्चिमी देशों की तरह उनका नाम लेकर पुकारा जाता है। 

मामला प्राइड परेड का

दिल्ली के उच्च न्यायालय ने जब समलैंगिकता को मान्यता दी थी और कहा कि ऐसे संबंध अपराध की श्रेणी में नही आते, तो समलैंगिकों को अधिक उछल-कूद नहीं करनी चाहिए थी तथा इस खुशी को पचा जाना चाहिए था। लेकिन वे नहीं पचा पाए और उन्होंने दिल्ली सहित कुछ शहरों में प्राइड परेड निकाली।  यूं लगा जैसे इन मुट्ठी भर लोगों ने पूरे भारतीय समाज को ठेंगा दिखाया हो। मीडिया ने भी इन प्राइड परेडों की जमकर कवरेज की और इसे नई सामाजिक क्रांति की संज्ञा दे डाली। अनेक लोग तो विवाहित जोड़ांे की शक्ल में सामने आए और कहा कि उनकी जीत हुई है। वे विवाहित हैं और उन्हें इस रूप में रहने को मान्यता मिल गई है। इन जोड़ों में हरियार्ाि-पंजाब और उत्तर प्रदेश के जोड़े भी थे। लेकिन उन्हें उस समय यह समझाने वाला कोई नहीं था कि भारतीय कानून ने समलैंगिक संबंधों को मान्यता दी थी, उन्हें अपराध की श्रेणी से हटाया था, न कि ऐसे लोगों को शादी करने की इजाजत दी थी। उन्हें यह समझाने वाला कोई नहीं था कि भारतीय कानून में विवाह की या विवाहित जोड़े की परिभाषा क्या है? मीडिया भी इस मामले की जमकर कवरेज करने में सभी मापदंड भूल गया। उसे इतना भी ख्याल नहीं रहा कि अधिकांश भारतीय परिवारों में पांच साल के बच्चे से लेकर अस्सी साल तक के बुजुर्ग भी इकट्ठे बैठकर टीवी देखते हैं। इस कवरेज का भारतीय परिवारों पर क्या असर होगा? लेकिन इन खबरों का जबरदस्त असर हुआ। इतना असर हुआ कि भारतीय समाज में हा-हाकार मच गया। मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया था जहां दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला बदल दिया गया था।

   बड़ी हस्तियां भी आई थीं समर्थन में

जब भी समाज मेंे अच्छा दिखाई देने वाला या फिर कुछ नया काम होता है, तो उसका श्रेय लेने वालों की भी होड़ लग जाती है। जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने समलैंगिकों के पक्ष में फैसला सुनाया था तो भारत की अनेक नामी-गिरामी हस्तियां इसका श्रेय लेने में जुट गई थीं। ये बड़ी-बड़ी हस्तियों ने समलैंगिकों को न केवल बधाई दी थी, बल्कि यह भी कहा था कि उन्हें उनका अधिकार मिल गया है। लेकिन सच्चाई यह है कि अधिकांश भारतीयों के इस फैसले के बाद सिर झुक गए थे तथा इन नामी-गिरामी हस्तियों के रवैये पर शर्मिंदगी महसूस की थी। लोकप्रियता बटोरने के लिए अनेक नेता भी मैदान में आए थे, जिनमें ऐसे नेता भी थे, जिनका इस कथित उपलब्धि में कोई हाथ नहीं था। बस श्रेय लेने की होड़ थी। लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला पलटा था तो यही नेता और नामी-गिरामी लोग अपना पल्लू बचाते हुए नजर आए थे। कुछ तेज-तर्रार धार्मिक नेताओं ने ऐसे लोगों से एक ही सवाल पूछा था कि अगर उनके बच्चे समलैंगिक बन जाएं तो उन्हें कैसा लगेगा? और इसका जवाब शायद ही कोई दे पाया था। 

बच्चों की जासूसी करवा रहे हैं मां-बाप

बहुत बड़ी सच्चाई यह है कि समलैंगिकता के मामले ने सभ्य भारतीय सामाज की जड़ें हिलाकर रख दी हैं। जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को वैद्य ठहराया था, तभी से माता-पिता, अभिभावकों और परिवार के लोगों की चिंताएं बढ़ गई थीं। जिन भारतीय परिवारों में इस तरह के संबंधों के बारे में कभी कोई उम्मीद नहीं की जाती थी, यह भारी परेशानी का विषय बन गया थौ। आज भी हर मां-बाप को यह चिंता सताती है कि कहीं उसका बेटा या बेटी समलैंगिक के रूप में उसके सामने आकर खड़ा न हो जाए। इसी चिंता के चलते उन्होंने अपने बच्चों की जासूसी भी करवानी शुरू कर दी है कि उनके बच्चे कब और किससे मिलते हैं तथा जिन लोगों से मिलते हैं, वे किस प्रवृति के लोग हैं। यानि बच्चे संदेह के दायरे में आ गए हैं।

  जो बच्चे विवाह योग्य हैं और विवाह को किसी वजह से टाल रहे हैं या देरी कर रहे हैं, उनके माता-पिता को अधिक चिंता सताए जा रही है। ऐसे बच्चों के यौन रूझान का पता लगाने के लिए उन्होंने प्राइवेट जासूसों की मदद लेनी शुरू कर दी है। बात केवल यहीं तक सीमित नहीं है। जिन युवाओं का विवाह निश्चित कर दिया गया है, वे भी इस चिंता में घुले जा रहे हैं कि कहीं उनका जीवनसाथी समलैंगिक तो नहीं होगा और उनका जीवन नर्क तो नहीं बना देगा? वे भी जासूसों का सहारा लेकर अपने भावी जीवनसाथी के यौन रूझानों का पता लगाने में जुटे हैं।  दिल्ली स्थित एस्कान डिटेक्टिव्स प्रा. लिमिटेड के निदेशक संजय कपूर का कहना है कि दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के बाद अभिभावकों में समलैंगिकता को लेकर जागरूकता बढ़ी है। उन्होंने बताया कि पति-पत्नी के बीच कई तरह के जासूसी के कुछ मामले पहले सामने आते रहे हैं, लेकिन वर्तमान में ऐसे अभिभावकों की संख्या ज्यादा है, जिनके बच्चों ने शादी से इंकार कर दिया है। अभिभावक यह जानने का प्रयास कर रहे हैं कि उनके बच्चे के किसी के साथ समलैंगिक संबंध तो नहीं हैं। 

मुंबई स्थित ऐ.इ.सी इवेस्टिगेशन की बिजनैस हैड भारती का कहना है कि संमलैगिकता की जांच के लिए प्रीमैट्रिमोनियल मामलों में निरंतर वृद्धि हो रही है। लड़के तथा लड़कियां अपने भावी जीवन साथी के प्रति खासी सावधानी बरत रहे हैं। अपने साथी के प्रति ऐसी जानकारी लेना भविष्य में काफी लाभांवित हो सकता है, क्योंकि बाद में परिवारिक दिक्कतें नहीं आतीं। भारती के अनुसार उनकी टीमें पार्टियों, डिस्को और ऐसे स्थानों पर जाकर जासूसी करते हैं और वहां से जानकारी जुटाकर ग्राहकों को उपलब्ध करवाई जाती है। पहले ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों द्वारा मादक पदार्थों के सेवन की जांच के लिए संपर्क करते थे, परन्तु अब समलैगिंक संबंधों की आशंका के चलते जांच करवाते हैं। जासूसी का यह व्यवसाय महानगरों से शुरू होकर ग्रामीर् िक्षेत्रों तक भी पहुंचने लगा है।

देह का अहंकार छोड़ें

एक ओर जहां समलैंगिकता के समर्थक कहते हैं कि हर इंसान को अपने दैहिक संबंधों पर स्वयं निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए। वहीं दूसरी ओर अध्यात्म से जुड़े लोग कहते हैं कि ऐसी प्रवृतियां इंसान में तभी आती हैं, जब वह अपनी देह का अहंकार करता है। मनुष्य भी अन्य जीवों की तरह एक जीव है, जिसकी शरीर की बनावट अलग है और बुद्धि अधिक है। हमारे शरीर की यौनिक आवश्यकताएं भी अन्य जीवों से अलग नहीं हैं। उनका मानना है कि अप्राकृतिक संबंध केवल मनुष्य नामक जीव में ही हैं, संसार के किसी भी अन्य जीव में नहीं हैं।  कुत्ता, बिल्ली, शेर, हाथी, चिड़िया या अन्य पशु पक्षी, जिनमें नर मादा का विभाजन किया जाता है, हमेशा विपरीत लिंगियों से ही शारीरिक संबंध बनाते हैं। पता नहीं मनुष्य को इस तरह के विचार क्यों आते हैं तथा वह इस तरह की प्रवृति क्यों अपनाता है। उनका यह भी कहना है कि इस सृष्टि को रचने वाले ने आदमी के शरीर की बनावट लोचदार और बुद्धि तीक्ष्र् िदी है तो उसके खतरे भी बहुत दिए हैं। 

अध्यात्मिक लोगों के ये विचार अपनी जगह बिल्कुल सही हैं। कभी सुनने में नहीं आया कि कोई पशु पक्षी आत्महत्या करता हो या फिर समलैंगिक संबंध बनाता हो। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि जिस जीव में जितनी अच्छाइयां होती हंै, उतनी ही बुराईयां भी होती हैं। े

कुत्ते हमने अक्सर देखे हैं। अकेले भी देखे हैं और टोलियों में भी देखे हैं। दर्जनों ऐसे आवारा कुत्ते भी दिखाई दे जाते हैं जो केवल एक कुतिया के पीछे पड़े होते हैं तथा उससे यौन संबंध बनाना चाहते हैं। लेकिन कभी किसी ने कुत्तों को समलैंगिक संबंध बनाते नहीं देखा। इसी प्रकार एक ही गाय के पीछे अनेक सांड पड़े होते हैं। लेकिन उन्हें आज तक किसी ने समलैंगिक संबंध बनाते नहीं देखा। बिल्कुल ऐसा ही अन्य पशु-पक्षियों में भी दिखाई देता है। 

कुछ बहुत ही समझदार और सुलझे हुए लोगों से जब इस विषय पर बात करते हैं तो वे कहते हैं कि केवल इंसान ही एक ऐसा जीव है, जो सबसे ज्यादा सेक्स के बारे में सोचता है और सबसे अधिक सेक्स करता है।  जिसके दिलो-दिमाग में ही हर समय सेक्स का कीड़ा चलता हो, वह अप्राकृतिक यौन संबंधों के बारे में भी सोच सकता है। उनका कहना है कि पशु पक्षी केवल एक विशेष मौसम में ही रति-क्रीड़ा करते हैं। बाकी मौसमों में वे इस ओर ध्यान तक नहीं देते। मौसम में भी वे केवल विपरीत लिंगी से ही यौन संबंध बनाते हैं। उनका सुझाव है कि अगर आपके मन में हर समय सेक्स का विचार आता रहता है तो आपको जरूर कोई मनोरोग है तथा उपचार के लिए किसी चिकित्सक के पास जाना चाहिए।  अप्राकृतिक यौन संबंधों का कोई परिणाम हासिल नहीं होता, उल्टा इससे विसंगतियां पैदा होती हैं।

क्या ऐसे लोगों से नफरत की जाए

अब एक बहुत बड़ा सवाल यह भी पैदा होता है कि भारतीय समाज जब अप्राकृतिक यौन संबंधों के खिलाफ है तो क्या उसे समलैंगिकों से नफरत करनी चाहिए? उनका बाय-कॉट कर देना चाहिए? इस संबंध में जब समाज के प्रबुद्ध लोगों से बात की गई तो अलग-अलग सुझाव सामने आए। कुछ लोगों ने यह कहा कि ऐसे लोगों की शक्ल तक नहीं देखनी चाहिए तथा इनसे एक निश्चित दूरी बनाकर रखनी चाहिए, वर्ना स्वयं का सामाजिक, पारीवारिक और व्यवसायिक जीवन तबाह हो जाएगा। लेकिन समाज के अधिकांश लोगों का यह मानना है कि नफरत तो किसी भी इंसान से नहीं की जानी चाहिए। आखिर वे भी ईश्वर द्वारा बनाए हुए जीव हैं। समलैंगिक समाज से छिपकर अगर कहीं संबंध बनाते हैं तो बनाते रहें, उनका जोर-शोर से प्रचार नहीं होना चाहिए। उनका कहना है कि बुराइयों की जितनी ज्यादा चर्चा होती है, उतना ही उसका प्रचार होता है और उतनी ही तेजी से वह बढ़ती चली जाती है। उनका कहना है कि अगर समलैंगिकता जन्मजात होती है, कुछ विशेष कारणों से होती है तो यह पहले भी होती रही होगी। अब कोई नई सृष्टि ने जन्म लिया नहीं है। आज तक जब यह बुराई ढ़की-छिपी ही थी तो अब कौनसी मजबूरी आ गई, जो इसका जोर-शोर से प्रचार किया जा रहा है तथा इसके लिए स्पेशल कानून बनाने के लिए दबाव डाला जा रहा है। अगर कोई किसी परिस्थितिवश समलैंगिक है, तो उसका विज्ञापन करने की अब अचानक क्या जरूरत पड़ गई? क्यों प्रचार किया जा रहा है कि समलैंगिक संबंध कोई अपराध नहीं हैं या समलैंगिक आपस में शादी भी कर सकते हैं और बच्चा भी गोद ले सकते हैं। 

अधिकांश भारतीयों का मानना है कि अगर किसी व्यक्ति के शरीर या दिमाग में किसी तरह की विकृति है तो उसका उपचार करवाना चाहिए। उसके लिए कानून बनाने की जिद नहीं करनी चाहिए। अब अगर कोई चोर है और चोरी के बिना उसका काम नहीं चल सकता तो यह एक अलग मुद्दा है, लेकिन चोरी को वैध घोषित कर दिया जाए, यह कैसे हो सकता है? इंसान की केवल सेक्स ही एकमात्र आवश्यकता नहीं है। शरीर और दिमाग की और भी आवश्यकताएं हैं। अगर सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कानून या सामाजिक मान्यताओं के अनुसार की जाती है तो इस आवश्यकता की भी करने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए कि अगर किसी व्यक्ति को बच्चों से ही यौन संबंध जोड़ने में खुशी मिलती है तो इस कर्म को कानूनी वैद्य किया जाए। कोई अगर यह कह दे कि उसे तो केवल जानवर से ही सेक्स करके मजा मिलता है तो इस बुरे काम के बारे में भी कानून बनाया जाए।

अचानक आसमान से नहीं टपके

समलैंगिक या अप्राकृतिक कर्म करने वाले कोई अचानक आसमान से नहीं टपक पड़े हैं। कुछ बुराइयां हमारे समाज में तेजी से घुस आई हैं, जो अप्राकृतिक यौन संबंधों को बढ़ावा दे रही हैं। सेक्स दुनिया का बहुत बड़ा व्यापार बन चुका है तथा भारत को भी इसका बाजार बनाने का कुचक्र चल रहा है। समलैंगिकों के क्लब खुलना, काल गर्ल या प्ले ब्वाय या जिगोलो की मांग होना, सेक्स संबंधों के लिए बच्चों की मांग होना, आखिर इसे भारतीय समाज कैसे सहन कर सकता है? भारतीय समाज के अधिकांश लोगों का मानना है कि किसी भी इंसान से नफरत नहीं करनी चाहिए। लेकिन इस तरह के संबंध बनाने वालों को सभ्य समाज से दूर रखना आवश्यक है। दो ही बातें हैं। या तो समाज को खत्म कर दीजिए और जानवरों की तरह रहना शुरू कर दीजिए। समाज के हर रिश्ते को खत्म कर दीजिए और किसी से भी यौन संबंध बना लीजिए। लेकिन अगर आप ऐसा नहीं चाहते और सभ्य समाज में रहना चाहते हैं तो इसकी मर्यादाओं का पालन भी करना ही होगा। अप्राकृतिक यौन संबंधों को लेकर या समलैंगिकता को लेकर कानून में कोई बदलाव नहीं किया जाना चाहिए तथा इसे अपराध की ही श्रेणी में रखा जाना चाहिए। अगर इसे कानूनी तौर पर वैद्य कर दिया गया तो सामाजिक ढ़ांचा लड़खड़ा जाएगा। आज कोई पति पत्नी से जबरदस्ती अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित नहीं कर पाता, बाद में बाकायदा मांग करने लगेगा। लड़का लड़के के साथ और लड़की लड़की के साथ अगर नजदीक होकर बैठी होगी तथा किसी गंभीर विषय पर मंत्रणा चल रही होगी तो यह मान लिया जाएगा कि वे सेक्स पर ही कोई चर्चा कर रहे हैं। दोस्तों या सहेलियों के ग्रुप तब समलैंगिकों या ग्रुप सेक्स वालों के ग्रुप के तौर पर देखे जाने लगेंगे। यानि जो लोग समलैंगिक संबंधों या अप्राकृतिक संबंधों से दूर हैं, उनका रूझान भी ऐसे संबंधांे की ओर होने लगेगा तथा समाज अराजक होकर रह जाएगा। 

  प्रेम से बड़ी मजबूरी कोई नहीं

इस बारे में कुछ प्रेमी जोड़े या वे लोग जिन्होंने प्रेम विवाह किए हैं या फिर वे, जो प्रेम में असफल रहे हैं, उनका कहना है कि अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने वालों या समलैंगिकों की आज मजबूरी का रोना रोया जा रहा है कि ऐसे संबंधोंें के बिना उनका काम नहीं चलता। लेकिन उन लोगों को समझना चाहिए कि प्रेम से बड़ी मजबूरी और कोई नहीं हो सकती। लेकिन अगर प्रेम के मामले में अपने बहन-भाई, माता-पिता या परिवार के किसी अन्य सदस्य की ओर रूझान या आकर्षण हो जाए तो क्या समाज उसे मान लेगा? क्या अपने ही घर परिवार में शादी करने वालों के लिए भारतीय समाज में कोई जगह है? आज भी ऑनर किलिंग का दौर जारी है। ऐसे-ऐसे प्रेमी जोड़ों को सरेआम मारा जा रहा है, जो या तो एक गांव के हैं, या मिलते-जुलते गौत्र के हैं या भाईचारे के गांव के हैं, या फिर नजदीकी रिश्तेदारी में हैं। जब समाज इस तरह के प्रेम संबंधों के बारे में सख्त है और कोई लिहाज नहीं करता तो अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने वालों या समलैंगिकों के प्रति नर्म रवैया कैसे अपना सकता है? ऐसे लोगों से भी समाज को संबंध विच्छेद कर लेना चाहिए। कानून को तो ऐसे मामलों में मान्यता देने के बारे में सोचना तक नहीं चाहिए। कोई भी समाज तभी सभ्य समाज बना रह सकता है, जब उसके नियम कायदे सभी के लिए मान्य हों तथा उनका उल्लंघन करने वालों के लिए सख्त प्रावधान हों। जब नजदीकी रिश्तों में प्रेम करने वाले प्रेमी जोड़े समाज में नहीं रह सकते तो अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने वाले या फिर समलैंगिक कैसे रह सकते हैं?

कहने को तो नशेड़ी भी कह सकते हैं कि नशे के बिना उनका काम नहीं चल सकता। यह उनके शरीर की आवश्यकता है। तो क्या सरकार नशे को कानूनी रूप से लागू कर देगी ताकि नशेड़ी तो खुला नशा कर ही सकें, साथ ही जो लोग नहीं करते, उनका रूझान भी इस ओर हो जाए।

ऐसे रिश्तों की कल्पना भी कैसे

जरा बुरी कल्पना करके देखिए कि आपका बेटा एक दिन किसी लड़के को घर लेकर आता है और आपको बताता है कि वह आपकी बहू है। वह उस लड़के से शादी कर चुका है तथा अपना जीवन उसके साथ गुजारना चाहता है। या फिर आपकी बेटी किसी सहेली के साथ घर आती है और कहती है कि वह लड़की आपकी दामाद है। दोनों शादी कर चुकी हैं और जीवन भर विवाहित दंपत्ति की तरह जीवन भर साथ रहेंगी। खुद सोचिए कि यह बुरी कल्पना करके आपको कैसा लगता है? सच बात तो यह है कि इस तरह की कल्पना केवल भारतीय ही नहीं, बल्कि विदेशों में रहने वाले पति-पत्नी भी नहीं कर पाते। अगर आप इसकी कल्पना तक नहीं कर पाते तो फिर सोचकर देखिए कि क्या धारा 377 हटनी चाहिए? क्या समलैंगिकता अपराध नहीं होनी चाहिए? क्या समलैंगिक शादियों पर कड़ा प्रतिबंध नहीं होना चाहिए? फिलहाल स्थिति आपके पक्ष में है। लेकिन अगर आपने जरा भी ढ़ील दी तो ऐसे लोग तैयार बैठे हैं, जो भारत में अप्राकृतिक यौन संबंधों या समलैंगिकता का पूरा जाल बिझाना चाहते हैं। वे भारतीय समाज को विकृत कर देना चाहते हैं तथा पश्चिमी सभ्यता को यहां पूरी तरह से लागू कर देना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वे इंसान को जानवर बना देना चाहते हैं, जो चाहे जिससे शारीरिक संबंध स्थापित कर ले। 

अगर गौर से देखा जाए तो भारत में विवाह काम वासना की तृप्ति की बजाय समाज के प्रति उत्तरदायित्व का भाव मुख्य माना गया है। विवाह करने का अर्थ एक सभ्य व सुसंस्कृत परिवार का निर्माण करना माना गया है। इसके लिए विवाह संस्कार के मंत्रों को देखा जा सकता है जिसमें वर और वधु दोनों एक-दूसरे के साथ-साथ परिवार और समाज के प्रति जिम्मेदारियों को निभाने के लिए विभिन्न प्रकार की प्रतिज्ञाएं करते हैं। सवाल यह है कि समलैंगिक संबंधों से समाज को क्या मिलेगा, जो समाज इसे स्वीकार करे और उनके झगड़े सुलझाने में अपनी उर्जा  लगाए? समलैंगिक संबंधों से न तो किसी परिवार का निर्माण हो सकता है और न ही वे समाज को कोई वारिस दे सकते हैं। ऐसे में केवल और केवल स्वार्थ व वासना पर आधारित और परिवार व समाज के प्रति अनुत्तरदायी संबंधों को किस आधार पर मान्यता दी जानी चाहिए? इसे प्राकृतिक और सामान्य मानने के लिए भी इसी प्रकार के कुतर्क दिए जा रहे हैं। 

अनेक डॉक्टर कहते हैं कि समलैंगिकता प्राकृतिक है। लेकिन दुनिया का कोई भी डाक्टर यह नहीं कह सकता कि गुदा का कार्य मैथुन है। यदि नहीं है तो इसे गुदा मैथुन को प्राकृतिक कैसे माना जा सकता है? अनेक इतिहासकारों का यह भी मानना है कि देश में मुसलमानों के आने से पहले समलैंगिक संबंधों की कोई चर्चा भी नहीं मिलती है। देश में उपलब्ध विपुल संस्कृत साहित्य में कहीं भी इसकी चर्चा नहीं पाई जाती। मुसलमानों में अवश्य इसका प्रचलन मिलता है। बाबरनामा में यह उल्लेख मिलता है कि रार्ाि सांगा ने बाबर से जो संधि की थी उसमें एक शर्त यह भी थी कि वह यहां समलैंगिक संबंधों पर बढ़ावा नहीं देगा। लेकिन अधिकांश लोग यह मानते हैं कि समलैंगिकता विदेशों से हमारे देश में आई हुई एक विकृति है जिसे आज कानूनी मान्यता दिलाने के लिए भारतविरोधी ताकतेंें प्रयासरत हैं। वास्तव में इसके लिए कोई कानून बनाने की बजाय आवश्यकता है कि देश में एक स्वस्थ और वासनामुक्त वातावरर् िबनाया जाए और ऐसे लोगों की मनोवैज्ञानिक चिकित्सा की जाए।

शारीरिक संबंध भले ही व्यक्ति का निजी मसला हो, साथी का चयन उसकी अपनी पसंद हो लेकिन जब बात अप्राकृतिक सेक्स की आती है तो इसका संबंध सिर्फ और सिर्फ इंसानी शरीर पर अत्याचार करने तक ही सीमित होता हैै। बात यहां सिर्फ समलैंगिकों को अधिकार देने की नहीं है बल्कि यह है कि अगर समलैंगिक संबंधों को कानून का संरक्षर् िप्राप्त हो जाएगा तो ऐसे अमानवीय संबंधों का दायरा दिनोंदिन विस्तृत होता जाएगा, जिसका शिकार बनेंगे वे मासूम बच्चे जिन्हें शायद शारीरिक संबंधों का अर्थ भी नहीं पता, वे पत्नियां या प्रेमिकाएं जिनका साथी सिर्फ अपने आनंद के लिए उनके शरीर के साथ अत्याचार करेगा। 

खुद को खुले विचारों वाला करार देने वाले ऐसे बहुत से लोग हैं जो समलैंगिकों को समर्थन देने के पीछे उनके वैयक्तिक जीवन जैसी दुहाई देते हैं। उन्हें यह सोचना चाहिए कि भारत में जहां संबंधों का दायरा काफी बड़ा होता है वहां निजी संबंधों के मसले को व्यक्तिगत कहना किसी समस्या का समाधान नहीं है। ऐसे संबंधों को बढ़ावा देना समाज, संस्कृति और स्वास्थ्य पर घोर आघात करना है। ऐसे संबंधों को कम से कम भारत में तो समर्थन नहीं देना चाहिए। भारत में समलैंगिकता को पूरी तरह एक अनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अपराध माना जाता है, जिसका पुरजोर विरोध होना ही चाहिए। शायद कोई भी भारतीय यह नहीं चाहेगा कि ऐसी घृर्तिि रवायत कभी भारत में अपने पैर पसारे।

भारतीय एकजुट हों

भारतीय सभ्यता व संस्कारों के पक्षधर एकमत से मानते हैं कि देश में अप्राकृतिक यौन संबंध व समलैंगिकता को फैलाना निश्चय ही भारतीयता को तार तार करने का षडयंत्र है। भारत एक सांस्कृतिक देश है, जहां अनेक संस्कार हैं। एक भारतीय पूरा जीवन इन्हीं संस्कारों के साए में आगे बढ़ता है लेकिन अगर कोई भारतीय संस्कारों को भूलकर कुसंस्कारों की ओर बढ़ता है, तो निश्चिय ही भारत की मूल भावना को नष्ट करने की साजिश में शामिल होता हैं। वास्तव में रिश्तों की एक मजबूत बुनियाद आज केवल भारत देश में ही दिखाई देती है। आज भी  विश्व के अनेक देश भारत के इन संस्कारों पर आश्चर्य प्रकट करते हैं क्योंकि विदेशों में भारत जैसे संस्कारों के बारे में कल्पना भी नहीं की जा सकती। भारत की संस्कृति का विश्व में कहीं कोई मुकाबला नहीं है, और पूरा विश्व इस बात से डरता है कि भारत अगर सांस्कृतिक रूप से एकजुट होकर खड़ा हो गया तो विश्व की कोई भी शक्ति भारत का मुकाबला नहीं कर सकती। आज विश्व के कई देशों के नागरिक एक बार भारत से जुड़कर देखते हैं तो फिर पलटकर वापस जाने का उनका मन ही नहीं करता।

सुप्रीम कोर्ट ने पहले जो दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय को पलटा था, वह अप्राकृतिक यौन संबंधों के बारे में जो अभूतपूर्व निरर््िय दिया था, वह जनभावनाओं के अनुसार तो था ही,  साथ ही प्राकृतिक और धार्मिक भी था। भारत के कर् िकर् िमें व्याप्त रिश्तों की मर्यादा भी था।  लेकिन बाद में उसने अपने ही निर्णय को पलट दिया और आपसी सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने वाले व्यस्कों को इससे छूट दे दी। इस बात में कोई शक नहीं है कि हमें इस बात की भी चिंता करनी होगी कि जिस भारत को विश्व में सांस्कृतिक गुरु की उपाधि से सम्मानित किया गया था, वह अपने ही लोगों के भद्दे और अप्राकृतिक आचरर् िकी वजह से बरसों पुरानी अपनी पहचान खो बैठा। धारा 377 में दी गई छूट भारत के साथ क्रूर मजाक तो है ही, साथ ही भारत को विदेश की राह पर ले जाने का एक गंभीर षड्यंत्र भी है।

पाश्चात्य देशों में अब हालात ऐसे हो गए हैं कि व्यक्तियों के पारस्परिक संबंध भी केवल शारीरिक भोग और विलास तक ही सीमित रह गए हैं। ऐसे संबंधों में पूरर््ि रूप से लिप्त विदेशी संस्कृति अप्राकृतिक संबंधों को भी फन और एक अनोखे प्रयोग के तौर पर लेती हैं, क्योंकि उन्हें यह सब सामान्य संबंधों से अधिक उत्साही लगता है। जिसका अनुसरर् िकुछ भारतीय लोग भेड़-चाल की तरह आंख मूंदकर कर रहे हंेैं। चाहे कोई यह कहे कि यह मनुष्य का अपना व्यक्तिगत मामला है, लेकिन एक इसी आधार पर उसे पूरर््ि रूप से स्वतंत्र नहीं छोड़ा जा सकता। 

समलैंगिक संबंधों के अनेक समर्थक यह तर्क देते हैंैं कि व्यक्ति का आकर्षर् िकिस ओर होगा, यह उसकी मां के गर्भ में ही निर्धारित हो जाता है और अगर वह अनैतिक संबंधों की ओर आकृष्ट होते हैं तो यह पूरर््ि रूप से स्वाभाविक व्यवहार माना जाना चाहिए। ऐसे लोगों को समझ लेना चाहिए कि कि जब प्रकृति ने ही महिला और पुरुष दोनों को एक दूसरे के पूरक के रूप में पेश किया है तो ऐसे हालातों में पुरुष द्वारा पुरुष की ओर आकर्षित होने के सिद्धांत को मान्यता देना कहां तक स्वाभाविक माना जा सकता है। इसके विपरीत अप्राकृतिक कृत्य जैसे संबंध स्पष्ट रूप से एक मनुष्य के मानसिक विकार की ही उपज हैं। यह एक ऐसे प्रदूषर् िकी तरह है, जो धीरे-धीरे जो प्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष ढंग से पूरे भारतीय समाज को अपनी चपेट में ले सकता है। ऐसे संबंध पूरर््ि रूप से अप्राकृतिक हंैं और हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि जब भी हम प्रकृति के विपरीत कोई काम करते हंै तो उसके गंभीर परिर्ािम भोगने ही पड़ते हैं।

भारतीय समाज में संबंधों की महत्ता इस कदर व्याप्त है कि कोई भी रिश्ता व्यक्तिगत संबंध के दायरे तक ही सीमित नहीं रह सकता। विवाह को एक ऐसी संस्था का स्थान दिया गया है जो व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता होने के साथ ही उसके परिवार के विकास के लिए भी बेहद जरूरी है। शारीरिक संबंधों को केवल एक व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में रखना भले ही उसकी अपनी स्वतंत्रता के लिहाज से सही हो, लेकिन सामाजिक दृष्टिकोर् िमें पूरर््ि रूप से गलत होगा। केवल मौज-मजे के लिए अनैतिक संबंध बनाना और अप्राकृतिक कृत्य के समर्थन में निकाली गई किसी भी परेड का समर्थन करना ऐसे किसी भी समाज की पहचान नहीं हो सकती जो अपनी परंपरा और संस्कृति के विषय में गंभीर हों। और भारत जैसे सभ्य समाज में ऐसी स्वच्छंद उद्दंडता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

नेस्तनाबूद करना होगा 

अगर भारतीय समाज को जिंदा रखना है तो उन व्यक्तियों को, उन ताकतों को पहचानना होगा, जो भारत को सेक्स की मंडी बना देना चाहते हैं। जिनकी मंशा है कि भारत में गे क्लब खुलें, पुरुष वेश्यावृति हो। सेक्स संबंधों के लिए कोई नियम या कायदा ही न रहे, भारतीय बिमारियों का शिकार होकर खुद अपने हाथों तबाह हो जाएं। शर्म की बात यह है कि भारत के ही कुछ कथित नेता और प्रभावशाली लोग इस अभियान को कामयाब बनाने में जुटे हुए हैं। इन्हें नेस्तनाबूद करना होगा। उनके मंसूबों को पहचानना होगा तथा अगर सरकार भी धारा 377 को खत्म करने के लिए कोई प्रस्ताव पारित करती है तो उसके खिलाफ जोरदार आवाज उठानी चाहिए। भारत कोई आज नहीं बना। भारतीय समाज कोई आज ही गठित नहीं किया गया। इस तरह की बुराइयां बहुत ही थोड़ी मात्रा में समाज में पहले भी थीं और आज भी हैं। कहते हैं कि गंदगी को कुरेदने से उसकी बदबू दूर-दूर तक फैल जाती है। उसे ढंकने का प्रयास करना चाहिए। छिपाने का प्रयास करना चाहिए।

Copywrite : J.K.Verma Writer

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