Homosexuality and Unnatural Sex Relations-5 : अप्राकृतिक यौन संबंध की क्यों होती है इच्छा बलवती?

   अप्राकृतिक यौन संबंध : क्यों होती है इच्छा बलवती? 

अनेक लोगों का मानना है कि अप्राकृतिक यौन संबंधों की इच्छा केवल उन लोगों में बलवती होती है, जो किसी ने किसी रूप में मानसिक रोगी होते हैं। जबकि यह सच नहीं है। शरीर व दिमाग से बिल्कुल स्वस्थ व्यक्ति भी अप्राकृतिक संबंधों में लिप्त रहे हैं, जिनमें अनेक सेलेब्रिटीज, हाई प्रोफाइल लोग, प्रख्यात लोग, विभिन्न तरह के कलाकार आदि शामिल हैं। इसलिए यह कहना उचित नहीं होगा कि मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति ही अप्राकृतिक यौन संबंध बनाते हैं। 

 अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना या समलैंगिक होना कोई बीमारी नहीं है, बल्कि एक रूझान है, जो आमतौर पर प्राकृतिक रूप से होता है। क्वियर समुदाय का मानना है कि यह एक खास वर्ग के लोगों की आवश्यकता है। उनका कहना है कि अब किसी पुरूष का स्त्री के प्रति या स्त्री का पुरुष की ओर सेक्स मामले में रूझान नहीं है या फिर कोई पुरुष होते हुए भी मन में स्त्री भाव रखता है या स्त्री होते हुए भी मन में पुरुष भाव रखता है, तो इसे प्राकृतिक ही माना जाना चाहिए। 

एक साइट के आंकड़े कहते है कि अकेले भारत मे करीब सवा लाख समलिंगी पंजीकृत हैं, जो अपने आप को किसी भी तरह से छिपाना नहीं चाहते।  यूरोपीय देश जर्मनी मे यह संख्या करीब पांच लाख को पार कर जाती है। इसलिए समलिंगियों के बीच की नजदीकियों को गहराई से समझने की जरूरत है। आज अप्राकृतिक यौन संबंधों विशेषकर समलैंगिक संबंधों को लेकर लोगों मे प्राइड अभियान छिड़ा हुआ है। यदि हम पश्चिम की बात करें तो जर्मनी और अमेरिका में समलैंगिक विवाह आम हो रहे हैं, वहीं पश्चिम एशिया और अफ्रीकी देशो मे समलैंगिकता के लिये सजा-ए-मौत भी है।  

समलैंगिकता क्या किसी को भी हो सकती है 

सबसे पहले तो इस सच्चाई को पूरी तरह से समझना होगा कि समलैंगिकता कतई कोई रोग नहीं है। समलैगिकता को हमें यूं समझना चाहिए कि अगर कोई समलैंगिक रूझान का लड़का है तो उसे लड़कियों की जगह लड़कों में ज्यादा दिलचस्पी होगी और वह लड़कों के साथ ही शारीरिक संबंध बनाने में ज्यादा सहज होगा। लेकिन अक्सर भ्रांतियां यह फैलती हैं कि अगर कोई समलैंगिक है तो वह विपरीत सेक्स वाले से संबंध बना ही नहीं सकता, जबकि ऐसा कतई नहीं है। एक समलैंगिक अपने विपरीत सेक्स वाले के साथ संबंध तो बना सकता है मगर ऐसे में वह खुद को सहज महसूस नहीं करेगा। अनेक चिकित्सकों का यह भी कहना है कि अगर समलैंगिकता के रूझान को समय पर पहचान किया जाए तो उसकी सोच में बदलाव करके और थोड़े से उपचार से उसे इस रूझान से मुक्ति दिलाई जा सकती है। अधिकांश यौन रोग विशेषज्ञ मानते हैं कि समलैंगिकता कोई रोग नहीं है। वे इसे एक सोच मानते हैं, जो मन के किसी कोने में बैठी होती है। अगर आप बचपन में या समय रहते इसे पहचान लें अथवा समलैंगिकता के लक्षर् िको पकड़ लें तो इसे ठीक किया जा सकता है। सायक्लोजीकली और मेडीकली दोनों ही तरीकों से इसका उपचार संभव है। वे कहते हैं कि अगर इसे खत्म करना है तो इसके लक्षर् िको पहचानिए, बात करिए और उपचार का सहारा लीजिए।

मनुष्य का खोजी व्यवहार

समलैंगिकता आज विश्व के लगभग सभी हिस्सों में फैल चुकी है, जहां पश्चिमी देशों में यह खुले-आम हो रही है, वहीं पूरब और मध्य में यह छिपी  हुई अवस्था में विराजमान है। मनोचिकित्सक इसके अनेक कारणोंे में एक मनुष्य के खोजी व्यवहार को भी मानते हैं। उनका कहना है कि मनुष्य हमेशा प्रयोग करना चाहता है तथा कुछ न कुछ नया करके दिखाना चाहता है। इसी खोजपूर्ण  और नएपन की प्रवृति उसे अप्राकृतिक संबंध बनाने की ओर ले जाती है। . इन मनोचिकित्सकों का यह भी कहना है कि आज जो दौर चल रहा है, वह पश्चिमी सभ्यता और नंगेपन का है, जिसमें वासना पूर्ति को अत्यधिक महत्व दिया जा रहा है। आज वासना की पूर्ति के लिए मनुष्य कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है। इसी वजह से आज अप्राकृतिक यौन संबंध और समलैंगिकता का दौर चला हुआ है। 

भारत के नकलची लोग

भारत का एक बहुत बड़ा तबका हमेशा से ही पश्चिमी देशों की नकल करता आ रहा है। विदेशी फैशन, विदेशी शिक्षा और अन्य विदेशी चीजों को अपनाने की उन्हें आदत पड़ गई है। भारत के किसी भी साहित्य में इसका वरर््िन मिल जाना आम बात है। अनेक लोग मानते हैं कि अरब मुसलमानों के साथ ही भारत में इस विकृति का आगमन हुआ। खुजराहो के कुछेक चित्रों में समलैंगिक सेक्स को भी दर्शाया गया है मगर इसे सिर्फ कला के रूप में देखने की सिफारिश की जाती है। लेकिन भारत का यह तबका जैसा देखता है, वैसा करना भी चाहता है।

नैतिक आचरण का खत्म होता अस्तित्व

दूसरी ओर सामाजिक चिंतकों का मानना है कि जैसे-जैसे भारतीय समाज में नैतिक आचरण खत्म होता जा रहा है, लोगों का सेक्स की ओर रूझान बढ़ता जा रहा है तथा वे नए-नए तरीकों से यौन आनंद लेना चाहते हैं। उन्हें इस बात की जरा भी परवाह नहीं है कि जो तरीके वे प्रयोग कर रहे हैं, वे अप्राकृतिक हैं। 

आज सेक्स का अपना एक बड़ा बाजार है, जिनमें पोर्न साइटें, अश्लील साहित्य, सेक्स टॉयज व सेक्स की हर तरह की उपलब्धता मौजूद है। ऐसे में अप्राकृतिक यौन संबंधों या समलैंगिकता को बढ़ावा मिलना बड़ी बात नहीं है।

गर्भ में निर्धारण 

सेक्स से जुड़े अनेक विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि स्त्री देह में पुरूष का मन या फिर पुरुष की देह में स्त्री का मन होना उस व्यक्ति की अपनी इच्छा से नहीं होता। ऐसा तो मां के गर्भ में ही निर्धारित हो जाता है। इस कशमकश को समझना इतना आसान नहीं है। इसलिए ऐसे व्यक्तियों से घृणा नहीं करनी चाहिए। अप्राकृतिक यौन संबंधों या समलैंगिकता की ओर रुझान होना अनेक बार व्यक्ति के बस में नहीं होता। ऐसे व्यक्ति की मानसिकता के पीछे छिपे कारण की तलाश जरूर की जानी चाहिए।

किशोरावस्था में भी पनपती है प्रवृति

यह भी माना जाता है कि अप्राकृतिक संबंधों या समलैंगिकता की प्रवृति प्रायः किशोरावस्था में पनपती है। किशोरावस्था का समय प्रायः 12 से 19 वर्ष तक का होता है।  यह समय सभी प्रकार की मानसिक शक्तियों के विकास का समय माना जाता है। इस दौर में प्रायः बालक या बालिका की कल्पनाओं का विकास होता है। माना जाता है कि बालक भविष्य में जो कुछ बनता है, उसकी पूरी रूपरेखा उसकी किशोरावस्था में ही तैयार हो जाती है। जिस बच्चे की रुचि शिक्षा की ओर बढ़ जाती है, वह अपने जीवन में बहुत शिक्षा प्राप्त करता है। जिसकी रुचि धन की ओर बढ़ जाती है, वह अपने जीवन में बहुत धन कमाता है।  इसी प्रकार जिसका रुझान कला या साहित्य की ओर हो जाता है, वह उसी दिशा में प्रगति करता है। इसी प्रकार जिस बच्चे का सेक्स की ओर अधिक ध्यान जाता है, वह जीवन में सेक्स के पीछे भागता रहता है तथा इसके लिए अगर वह अप्राकृतिक संबंधों को भी अपनाने में पीछे नहीं रहता।

मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि किशोर अवस्था सेक्स के विकास की भी अवस्था है। इसी के कारण जहां वह सुंदरता के पीछे भागता है, वहीं अपने शरीर में अनेक तरह के बदलाव महसूस करता है। आमतौर पर कामुकता का अनुभव तेरह वर्ष की उम्र में होने लगता है। वह अनेक तरह की कामुक क्रियाएं करने लगता है। जब काम का वेग बढ़ता है तो कुछ किशोर-किशोरियां समलैंगिक संबंध या फिर अन्य किसी तरह के अप्राकृतिक संबंध स्थापित कर लेते हैं। दरअसल इस उम्र में कुछ नया कर गुजरने को भी किशोर बच्चे तैयार रहते हैं। जब उसकी निम्न कोटि की इच्छाएं जागृत होती हैं तो फिर मन में उच्च कोटि की इच्छाएं जागृत होने लगती हैं।

  विषमलिंगी महिलाओं जैसा मस्तिष्क  

लॉस एंजिल्स टाइम्स ने हाल ही में एक नए अनुसंधान के बारे में खबर प्रकाशित की है कि समलिंगी पुरुषों का मस्तिष्क विषमलिंगी महिलाओं के मस्तिष्क से मेल खाता है।  इस समाचार में समलिंगी पुरुषों और विषमलिंगी महिलाओं के मस्तिष्क में समानता की बात कही गई है।

मस्तिष्क के स्तर को मापने वाले उपकरर्ोिं का इस्तेमाल कर अनुसंधानकर्ताओं ने मस्तिष्क के उन सर्किटों में समानताएं खोजीं, जो भाषा कौशल के लिए जिम्मेदार होते हंैं। इससे संभवतः यह व्याख्या होती है कि क्यों समलिंगी पुरुष विषमलिंगी महिलाओं की तर्ज पर विषमलिंगी पुरुषों को बातचीत के कौशल में पछाड़ देते हैं। अनुसंधान के अनुसार भावनाओं को संचालित करने वाला मस्तिष्क क्षेत्र भी समलिंगी पुरुषों और विषमलिंगी महिलाओं में एक जैसा होता है। दोनों ही समूहों में विषमलिंगी पुरुषों के मुकाबले अवसाद संबंधी मानसिक समस्या की दर अधिक होती है। यह अध्ययन नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस द्वारा किया गया।

अनुसंधान के अनुसार जिस तरह की समानता समलिंगी पुरुषों और विषमलिंगी महिलाओं के मस्तिष्क में होती है, उस तरह की समानता समलिंगी महिलाओं और विषमलिंगी पुरुषों के मस्तिष्क में नहीं होती। पूर्व के अध्ययनों में कहा गया था कि सेक्स व्यवहार जैविक कारकों से प्रभावित होता है।

इसके बावजूद देश में समलैंगिकों की तादाद बढ़ने के पीछे कौन से कारर् िहैं, उनका खुलासा होना बेहद जरूरी है। मनोचिकित्सक व यौन विशेषज्ञों के अनुसार गे यानी समलैंगिक पुरुष और लेस्बियन यानी स्त्री समलैंगिक बनने के पीछे यौन सम्बंधी गड़बड़ियां प्रमुख कारर् िहैं। उन लड़कों में जिनमें लड़कियों के यौन हारमोन एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्टोन निश्चित मात्रा से ज्यादा होते हैं, उनमें चाल-चलन, बोल-चाल, रहनदृसहन व यौनेच्छाओं पर स्त्रीत्व की छाप ज्यादा दिखलायी देती है, वे ही समलैंगिक बनते हैं। 

उन लड़कियों में जिनमें पुरुषों के यौन हारमोन टेस्टोस्ट्रोन निश्चित मात्रा से ज्यादा पाये जाते हंैं, वे लड़कियों के प्रति ज्यादा आकर्षित होती हैं। वे बचपन से ही ऐसी हरकतें करती हैं लेकिन माता-पिता उसे उनकी बाल सुलभ क्रीड़ाएं समझ ध्यान नहीं देते। ऐसी हालत में वे विपरीतलिंगी जैसी हरकतें करती हैं। आगे चलकर वे लेस्बियन बन जाती हैं। इसके अलावा जिन लड़के-लड़कियों के गुप्तांग विकसित नहीं होते, वे हीनभावना से ग्रस्त हो अक्सर समलिंगी से यौन सम्बंध बना लेते हैं। इसके पीछे उनकी मान्यता है कि यदि समय पर उनका शारीरिक व गुप्तांग का विकास नहीं हो पाया, उस स्थिति में विपरीतलिंगी का उनके प्रति आकर्षण नहीं होगा न ही सेक्स के प्रति समर्पर्।ि 

कुछ और कारण

कुछ लड़के-लड़कियां ऐसे हैं जिनके माता-पिता अक्सर विपरीतलिंगी से बात करने तक की इजाजत नहीं देते और कुछ वे जो 13 साल से पहले ही सेक्स का अनुभव कर लेते हंैं, वे समलैंगिकता के शिकार जल्दी हो जाते हैं। फिर धीरे-

धीरे वे इसके आदी हो जाते हैं। 

प्रख्यात मनोचिकित्सक डा. जितेन्द्र नागपाल बताते हैं कि समलैंगिक पुरुष एक्टिव और पैसिव दो प्रकार के होते हैं। गुंडे, बदमाश, इलाके के दादा या पहलवान टाइप के ताकतवर लड़के एक्टिव कहलाते हैं जिन्हें अपने आतंक या शारीरिक बल के चलते सेक्स के मामले में दूसरे लड़कों को कष्ट पहुंचाने में आनंद मिलता है। पैसिव वे होते हैं जिनमें हर मामले में स्त्रीत्व सीमा से अधिक दिखार्र्ई देता है और जिन्हें सेक्स के दौरान दर्द सहने में ज्यादा आनंद मिलता है। एक भी दिन उनके साथ ऐसा न हो तो वे बेचैन हो जाते हैं। 

मनोचिकित्सक डा. अरूर् िगुप्ता के अनुसार ऐसे लोग अधिकतर जेल, पागलखाने, अनाथालय या होस्टलों में पाये जाते हैं। ऐसे युवकदृयुवती अपने ही घर में विपरीतलिंगी से बातचीत तक न करने वाले भय, निराशा और विपरीत सेक्स का अपने प्रति आकर्षर् िन होने के कारर् िअपने ही समलिंगी से शारीरिक सम्बंध बना लेते हैं। इस बारे में मनोचिकित्सक व प्रोफेसर डॉ. शेखर सक्सेना कहते हैं कि यह नया नहीं है, और न ही बीमारी है। यह सामाजिकदृया पारिवारिक हालातों से उपजी एक आदत, डर व हीनभावना है। इस वजह से ऐसे मामले आजकल तेजी से बढ़ रहे हैं। समाज में समलैंगिकों की स्थिति में पिछले डेढ़ दशक से काफी बदलाव आए हंै। अब वे अपनी खुली पहचान चाहते हैं जबकि पहले यह बात सोची भी नहीं जा सकती थी। पिछले आठ सालों में तो 18 से 24 साल के बहुतेरे समलिंगी जोड़े खुलकर सामने आए हैं और बहुतेरे आएदृदिन सामने आ भी रहे हैं। अब वे अपने दुत्कार, बहिष्कार या घृर्ािस्पद व्यवहार का पहले की अपेक्षा खुलकर सबके सामने आकर प्रतिकार करने लगे हैं और अपने बुनियादी अधिकारों की विभिन्न मंचों से मांग भी करने लगे हैं। वैसे तो देश में वह 1997 से ही अपने अधिकारों के लिए आंदोलनरत हैं लेकिन वर्ष 2004 में जनवरी माह में मुंबई में ‘वल्र्ड सोशल फोरम’ के अवसर पर उन्होंने अपनी आवाज बुलंद कर समूचे देश को इस मुद्दे पर यह सोचने पर विवश किया कि अब अधिक दिनों तक उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। भले सरकार यह दलील देकर किदृ‘समाज इस तरह के सम्बंधों को कतई मंजूर नहीं करता, इसलिए इसे किसी भी कीमत पर कानूनी मान्यता नहीं दी जा सकती’ उनकी मांग को सिरे से खारिज कर दे। लेकिन यह सर्वविदित है कि समलैंगिकता कोई नई बात नहीं है। उसी वर्ष बैंगलूर में ‘कामुकता, पौरूषता और संस्कृति’ विषय पर संपन्न दक्षिर् िएशियाई सम्मेलन पर समलैंगिकों की बडे-दृबडे समूहों में मौजूदगी ने स्पष्ट कर दिया कि पुरूष या स्त्री समलैंगिकता, दोहरे सेक्स सम्बंधों पर व लिंग परिवर्तन करने वालों के बारे में मौन रहने का जमाना अब लद चुका है। इन मुद्दों पर बहस और गोष्ठी किए जाने की जरूरत समय की मांग है। इसे अपवाद मानकर परे नहीं धकेला जा सकता।

माता-पिता का व्यवहार भी बनता है जिम्मेवार

समलिंगी आकर्षर् िक्यों होता है, इसे लेकर कई तरह की बातें की जाती हैं। यह भी बताया जाता है कि माता-पिता का व्यवहार यानी जहां मां पावरफुल और स्वभाव से रौब वाली हो और पिता दबे हुए हों, वहां अक्सर संतान के होमोसेक्सुअल होने की कल्पना की जाती है। बच्चे के विकास का वातावरर् िभी मायने रखता है। मसलन बढ़ती उम्र के दौरान बच्चे का को-ऐड स्कूल में न पढ़ना। ऐसे कुछ मामलों में लड़के के मन में लड़कियों के प्रति सहज रूप से कम आकर्षर् िपैदा हो सकता है। इसके अलावा व्यक्ति के जींस पर भी निर्भर करता है। वैसे, इनमें से किसी को भी होमोसेक्सुअलिटी के लिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। 

जेनेटिक तत्वों पर निर्भर

आदमी का समलिंगी या विषमलिंगी होना जनेटिक तत्वों पर भी निर्भर करता है। इत्तफाक की बात है कि छठी सदी के खगोलविद्, ज्योतिषाचार्य और आयुर्वेदिक चिकित्सक वराहमिहिर ने भी अपने मशहूर ग्रंथ बृहद जातक में कहा था कि यह जन्मजात प्रकृति होती है, कोई बीमारी नहीं, इसलिए इसका कोई ठोस इलाज भी नहीं है। वे कहते हैं कि आदमी होमोसेक्सुअल क्यों होता है? इस बारे में यही कहा जा सकता है कि किसी को चाय पसंद है तो किसी को कॉफी और किसी को दोनों पसंद हैं। किसी को पता नहीं होता कि उसे चाय क्यों पसंद है या फिर कॉफी ही क्यों अच्छी लगती है। 

इसके लिए न तो योगाचार्य पतंजलि ने कोई इलाज बताया है और न ही आयुर्वेद विशारद ऋषि चरक ने ही इस पर कुछ कहा है। आज की साइंस भी इसके लिए किसी इलाज को न तो मान्यता देती है और न ही इसकी जरूरत समझती है। 

बच्चा कैसा होगा

अप्राकृतिक संबंधों से जुड़े अनेक सवालों के साथ-साथ एक सवाल यह भी सामने आता है कि समलैंगिक पुरुष किसी महिला से विवाह करे और वह गर्भवती हो जाए तो होने वाले बच्चे के समलिंगी होने की संभावना कितनी है ? इसका जवाब यह है कि जितनी किसी विपरीतलिंगी संबंधों वाले पुरुष की संतान की। शुरुआती बरसों में कभी-कभार स्थापित किए गए समलिंगी संबंधों से आदमी जिंदगी भर के लिए समलैंगिक नहीं बन जाता। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि अप्राकृतिक संबंधों के पीछे छिपी हुई मानसिकता और समलैंगिक बनने के पीछे एक नहीं अनेक कारण हो सकते हैं। लेकिन ऐसे लोगों को मानसिक तौर पर बीमार कहना सर्वथा अनुचित होगा।

Copywrite : J.K.Verma Writer

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