Homosexuality and Unnatural Sex Relations-15 : अप्राकृतिक यौन संबंधों व समलैंगिकता को लेकर अनेक फिल्में

    अप्राकृतिक यौन संबंधों व समलैंगिकता को लेकर अनेक फिल्में बन चुकी हैं और अभी भी बनाई जा रही हैं। माना जाता है कि ऐसी फिल्में भी लोगों का सेक्स रूझान बदलने के लिए दोषी हैं। एक सामान्य इंसान को भी जब यह सब देखने को मिलता है तो अनायास ही उसके दिल में ऐसे संबंध बनाने की इच्छा जागृत होने लगी है। मौका मिलते ही वे इस तरह के संबंध बनाने की कोशिश भी करते हैं। अनेक लोगों ने स्वीकार किया है कि उन्होंने इस तरह की फिल्में देखने के बाद अपनी पत्नी से अप्राकृतिक सेक्स करने की इच्छा जाहिर की है तथा एक नया अनुभव प्राप्त करना चाहा है। अनेक युवाओं ने भी स्वीकार किया है कि जब उन्हें ऐसा कुछ देखने को मिलता है तो मन के किसी कोने में अप्राकृतिक तौर पर सेक्स करने की इच्छा जोर मारने लगती है।

इस अध्याय में आइए हम ऐसी ही कुछ फिल्मों के बारे में जानकारी जुटाने का प्रयास करते हैं।

     फायर

वर्ष 1996 में बनी दीप मेहता की यह फिल्म 1998 में रिलीज हुई। इसमें शबाना आजमी व नंदिता दास ने जेठानी-देवरानी का अभियन किया है। महिला समलैंगिकता पर आधारित यह कहानी इस्मत चुगतई की कहानी लिहाफ पर बनाई गई है। जैसे ही यह फिल्म रिलीज हुई, इसके खिलाफ अनेक स्थानों पर प्रदर्शन हुए तथा इस पर बैन लगाने की मांग की गई। लेकिन फिल्म सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताते हुए रिलीज करने का आदेश जारी कर दिया।

फिल्म फायर दो नारियों के उपेक्षित जीवन की कहानी है। यह उस अतृप्ति की कहानी है जो एक महिला 15 वर्ष से भोग रही है और दूसरी ब्याहते ही अपने आवारा पति की उपेक्षा का शिकार हो जाती है। शिक्षित देवरानी को यह स्थिति असहनीय लगती है। जेठानी ऐसे पुरुष की पत्नी है जो एक स्वामी जी के कहने पर अपनी वासना पर संयम करने के प्रयास में लगा है। वैवाहिक जीवन के 15 वर्ष उसने उस संयम की परीक्षा में खपा दिए। वह अपने रूटीन कार्य के बाद स्वामी जी के प्रवचन सुनना, रात को पत्नी को बराबर में बिना स्पर्श किए सुलाता। देवरानी पर धीरे-धीरे जेठानी की अतृप्ति का रहस्य खुलता है। और तब दोनों अपनी आत्मा और शरीर को तृप्त करने का मार्ग अपना लेती है।

 गौर से देखा जाए तो फायर दो विवाहितों के उस एकाकीपन की कहानी है जिसके लिए उनके पति दोषी है। यह उस व्यथा का चित्रर् िहै जिसे अक्सर नारी सहती है। उपेक्षा और एकाकीपन को दूर करने के लिए फायर एक सच्चाई दर्शाती है। यह केवल दो युवतियों की अतृप्ति की कथा है और महिलाएं इस व्यथा को दूर करने का और मार्ग अपनाती हंै। एकाकीपन की, उपेक्षा की, अतृप्ति की सैकड़ों-हजारों घटनाएं होती हैं और उनके समाधान भी सैकड़ों-हजारों हो सकते हैं। उनमें से केवल एक की ओर दीपा मेहता ने इशारा किया है।

सामान्य भारतीयों को यह संकेत चाैंकाने वाला लग सकता है। पर क्योंकि दीपा स्वयं पश्चिमी समाज में रही है, इसलिए हो सकता है कि उनको यह समलैंगिक रिश्ते की बात सामान्य भी लगी हो। पर यह भी एक सच्चाई है कि फायर मूल रूप में न तो लेस्बियन नारियों की कहानी है और न ही इसमें किसी भी रूप में इस तरह के रिश्तों की कोई पैरवी की गई है। वास्तव में यह तो जेठानी राधा और देवरानी नीता के उस अकेलेपन, उपेक्षा और सहज स्वाभाविक तृप्तता से वांछित रहने की व्यथा क्या है जो वे लाजपत नगर जैसे भीड़ से भरे माहौल में रहने के बाद भी भोगने पर विवश होती है। 

फिल्म विश्लेषकों का मानना है कि फायर के चरित्र-चित्रर् िसे असहमति रखना या उसकी आलोचना करने का अधिकार सबको है। परंतु असहमति होने पर तोड़-फोड़ करना, दंगे-फसाद की धमकियां देना, गैर-कानूनी ढंग से जोर-जबर्दस्ती करके फिल्म का प्रदर्शन रुकवाना-यह हमारी लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुरूप नहीं। विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे विधान ने प्रदान की है। यदि फायर में लेस्बियनवाद का समर्थन होता, इसे अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास होता, तब निस्संदेह फायर को आपत्तिजनक माना जा सकता था। तब इसकी निंदा भी उचित होती और इसके प्रदर्शन का विरोध भी सही होता।

  दोस्ताना 2

एक दोस्ताना फिल्म वर्ष 1980 में यश जौहर ने बनाई थी, जिसमें उस वक्त के सुपर स्टार्स अमिताभ बच्चन , शत्रुघ्न सिन्हा, जीनत अमान आदि को लिया गया था। इसके बाद वर्ष 2008 में यश जौहर के साहबजादे करर् िजौहर ने दोस्ताना-2 का निर्माण किया है, जिसमें जॉन अब्राहम, अभिषेक बच्चन, प्रियंका चोपड़ा, बोमन ईरानी व किरर् िखेर आदि कलाकारों ने काम किया है। 

करर् िकी यह फिल्म हॉलिवुड की एक सुपरहिट फिल्म का रीमेक है, जिसमें दो अजनबी किराए पर फ्लैट लेने के लिए खुद को गे ( समलैंगिक ) बताते हैं। करर् िने इस छोटी सी कहानी को बिकाऊ मसालों के साथ पेश किया है। भले ही पिछले कुछ अर्से से हमारे देश में भी एक वर्ग खुद को बड़ी शान से गे साबित करते हुए अलग से कानून की डिमांड करता हो, लेकिन हमारा समाज आज भी गे कल्चर को पूरी तरह से नकारता है। इस फिल्म की कहानी गे कल्चर को ही फोकस करती है। कहानी विदेश में रहने वाले दो अजनबियों कुर्ािल ( जॉन अब्राहम ) और समीर ( अभिषेक बच्चन ) की है। पेशे से फैशन फोटोग्राफर कुर्ािल और मेल नर्स समीर को तलाश है एक फ्लैट की, लेकिन मुश्किल यही है कि इन कुंआरों को कोई अपने यहां रखने को तैयार नहीं। ऐसे में दोनों एक मकान मालकिन को यकीन दिलाते हैं कि वे गे हैं और फ्लैट हासिल कर लेते हैं। यहीं से शुरू होती है असली कहानी। एक फैशन मैगजीन में काम करने वाली मकान मालकिन की भतीजी नेहा ( प्रियंका चोपड़ा ) को जब पता चलता है कि उन्हीं के फ्लैट में रहने वाले समीर और कुर्ािल गे है तो वह दोनों के साथ वक्त गुजारना ज्यादा पसंद करती है। नेहा का मैगजीन एडीटर एम ( बोमन ईरानी ) भी गे है। 

कहानी में उस वक्त ट्विस्ट आता है जब नेहा की मैगजीन में अभिमन्यु सिंह ( बॉबी देओल ) की एंट्री होती है। न जाने क्यूं फिल्म में गे कल्चर को कुछ ज्यादा ही फोकस किया गया है। वैसे जूनियर बी गे के रोल में खूब जमे हैं। लेकिन भारतीय फैमिली के लिए इस फिल्म में कुछ नहीं है। 

माय ब्रदर निखिल

वर्ष 2005 में रिलीज हुई इस फिल्म में अस्सी के दशक के अंतिम सालों और नब्बे के दशक के शुरू के सालों में एडस को लेकर जो भ्रांति का माहौल था उसी ऊहापोह से भरे काल का जिक्र है। फिल्म निर्देशक ओनिर की यह पहली फिल्म है।

फिल्म में एक खिलाड़ी निखिल(संजय सूरी) जो समलैंगिक है, गोआ का राज्यस्तरीय चेंपियन तैराक है, के एड्स का शिकार बनने की कहानी दिखाई गई है। तैराकी में अपने उज्ज्वल भविष्य के सपने संजोये निखिल के जीवन में एड्स के आगमन के साथ न केवल उसकी आशाओं पर तुषारापात होता है बल्कि एडस के साये के स्पर्श मात्र से उसके इर्द-गिर्द के लोगों के उसके साथ रिश्ते सिकुड़ने शुरू हो जाते हैं। यहां तक कि उसके पिता जो उसे चेंपियन बनाने के लिये सपने देखते थे और इसके लिये निखिल से भी ज्यादा प्रतिबद्ध थे, उसका परित्याग कर देते हैं।

जानलेवा बीमारी और इसके साथ आई बदनामी की छाया निखिल के जीवन को पूरी तरह से ग्रस लेती है और चारों तरफ अंधकार से घिरे निखिल को एकमात्र रोशनी की किरर् िदिखाती है उसकी बड़ी बहन अनामिका (जूही चावला)। यह फिल्म निखिल की नहीं है बल्कि यह उससे भी ज्यादा अनामिका के संघर्ष की है जो वह अपने भाई के लिये समाज के खिलाफ करती है। उसका संघर्ष है अपने रोगी भाई के लिये ऐसा माहौल बनाना जहां वह एक इंसान की तरह अपने रोग से लड़ सके और अगर लड़ न सके तो एक इंसान की तरह मर तो सके। 

एक और कमजोरी है फिल्म में और अस्सी और नब्बे के दशकों में एड्स के प्रति भ्रामक समझ को समझते हुये यह कमी काफी बड़ी प्रतीत होती है। फिल्म इस बात पर बार बार जोर देती है कि यह जानना कतई जरूरी नहीं है कि निखिल को एड्स कैसे हुआ और उसे कहां इस रोग का संक्रामर् िहुआ? निखिल को नहीं पता कि उसे एड्स कैसे हुआ होगा। निखिल एक गे है पर उसका गे साथी जांच में एकदम ठीक पाया जाता है। 

पेज-3 

बॉबी पुष्कर्णा व कविता पुष्करणा की इस फिल्म का निर्देशन मधुर भंडारकर ने किया है। यह फिल्म 2005 में रिलीज हुई है तथा इसमं कोंकणा सेन शर्मा, अतुल कुलकर्णी, संध्या मृदुल, तारा शर्मा, अंजू महेंद्रू, बोमन इरानी आदि कलाकार हैं। इस फिल्म ने तीन नेशनल अवार्ड जीते हैं।

फिल्म पेज-3 समाज के उच्च तबके की कहानी है जिसे सामाजिक मेल-मिलाप वाले आयोजन यानी पार्टियां करना बहुत पसंद होता है और कुछ अखबारों का तीसरा पन्ना इसी तबके की संस्कृति की खबरें मिर्च-मसाला लगाकर छापता है। इसे पेज-3 संस्कृति के नाम से भी जाना जाता है। पश्चिमी देशों के छोटे पन्ने के कुछ अखबार अपने तीसरे पन्ने के लिए खासे चर्चित हैं और मुंबई में भी यह संस्कृति काफी प्रचलित है।

कोंकणा सेन फिल्म की मुख्य नायिका है, जिनका फिल्म में नाम माधुरी हैै। बोमेन ईरानी एक संपादक बने हैं, जो माधुरी को ऐसी पार्टियों की कवरेज करने की ड्यूटी लगाते हैं। लेकिन एक दिन वह पाती है कि उसका ब्वायफ्रेंड समलैंगिक है तथा अपने ब्वायफ्रेंड के साथ उसके सेक्स रिलेशन हैं। एक दिन वह अपने ब्वायफ्रेंड को उसके फ्रेंड के साथ बैड पर सेक्स रिलेशन बनाता हुआ देखती है तो उसका हाई प्रोफाइल लोगों की ऐसी पार्टियों व संस्कृति से मोह भंग हो जाता है तथा वह अपने संपादक से रिर्पोर्टिंग के लिए दूसरी बीट मांगती है। उसे क्राइम की बीट मिल जाती है। 

फिल्म में जो सबसे बड़ी सच्चाई है, वह यह है कि अनेक अखबारों के पेज तीन पर हाई प्रोफाइल लोगों की सभ्यता, पार्टियों व मौज-मस्ती की खबरें छपती हैं। अनेक पाठकों को तो केवल पेज-तीन से ही मतलब होता है। उसे पढ़ने के बाद वे उसे फेंक देते हैं। मॉडलिंग और फैशन की दुनिया में जगह बनाने के उत्सुक युवक-युवतियां तो तीसरे पन्ने के दीवाने होते हैं, उस पर जगह पाने और उसे पढने के लिए। फिल्म में समलैंगिकता को शामिल किया गया है।

   चांदनी बार

  मधुर भंडारकर द्वारा निर्देशित इस फिल्म में तब्बू, अतुल कुलकर्णी व राजपाल यादव आदि कलाकार हैं। यह फिल्म वर्ष 2001 में प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म में जेल में बंद एक कैदी के साथ कुछ युवाओं द्वारा समलैंगिक संबंध दिखाए गए हैं। चांदनी बार शुरू होती है मुख्य भूमिका में तब्बू की दर्दनाक शुरुआत से जो स्वेच्छा से नहीं, बल्कि मजबूरी से और जबरदस्ती से वैश्या के धंधे में धकेली जाती है। अंत में फिल्म को बहुत अच्छी तरह से समेटा गया है साथ में अभिनय को जीवंत करके डाल दिया गया हैं। इस फिल्म को कुवैत सहित अनेक मुस्लिम देशों में बैन कर दिया गया था।

आई एम

आई एम में चार कहानियां हैं। पहली आफिया की जिसका बेवफा पति से तलाक हुआ है। और इससे मर्दों से भरोसा उठा है। अब आफिया को बच्चा चाहिए लेकिन कन्वेन्शनल नहीं बल्कि आर्टिफिशल इनसेमिनेशन से। आफिया उलझन में है क्योंकि वह नियम के खिलाफ स्पर्म डोनर से मिलना चाहती है ताकि बच्चे के रंग-रूप का अंदाज ले सके। दूसरी कहानी मेघा उर्फ जूही चावला की। दिल्ली में सेटल ये कश्मीरी पंडित लड़की, बरसों बाद कश्मीर लौटती है अपनी प्रॉपर्टी बेचने के लिए मगर कश्मीर के दिए जख्म हरे हो जाते हैं। कड़वाहट का असर मेघा और उसकी मुस्लिम सहेली रूबीना के रिश्तों पर भी पड़ा है। तीसरी कहानी है अभिमन्यु संजय सूरी की जो बचपन में सौतेले पिता के यौन शोषर् िका शिकार होता है लेकिन बड़े होने पर वो इस शोषर् िका फायदा अपने पिता को ब्लैकमेल करके उठाने लगता है। चौथी कहानी ओमार और जय की है जब समलैंगिगता अपराध थी। एक ही मुलाकात में जय और ओमार के इतने करीब आ जाते हैं कि पुलिस जय को ब्लैकमेल कर लेती है। सारी कहानियों के सब्जेक्ट बेहद बोल्ड हैं जिन्हें डायरेक्टर ओनिर ने बड़ी गंभीरता से फिल्माया है। नंदिता दास के चेहरे पर बेवफाई का दर्द जूही के दिल में कश्मीर के लिए तल्खी। मन मसोसकर कश्मीर में रहती मनीषा दोस्ती से भरोसा खाकर तिलमिलाते राहुल बोस। शानदार परफॉरमेंस हैं इस फिल्म में।  अखरने वाली बात है जय और ओमार की कहानी में पुलिस अफसर की गालियां। ये गालियां सुनना हर किसी के बस का नहीं है। 

आई कांट थिंक स्ट्रेट

यह फिल्म वर्ष 2008 में बनी थी। शमीम शरीफ द्वारा इसी नाम से एक उपन्यास लिखा गया था, जिस पर यह फिल्म बनी थी। हिंदी से डब होकर यह फिल्म अन्य भाषाओं में भी बनी। इस फिल्म में एक लंदन बेस्ड जोर्डियन लड़की को ब्रिटिश इंडियन लड़की से प्यार हो जाता है तथा दोनों के बीच समलैंगिक संबंध भी कायम हो जाते हैं।

ट्रेफिक सिग्नल 

वर्ष 2008 में बनी मधुर भंडारकर की नई फिल्म ‘ट्रैफिक सिग्नल’ में पेज-3 की ही तरह गे सेक्स को दिखाया गया है। फिल्म में हमंें एक ऐसी दुनिया से परिचित करवाया गया है, जिसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की होगी। एक ऐसी दुनिया, जिसे हम हर दिन ट्रैफिक सिग्नल पर देखते हैं और जब सिग्नल की लाइट हरी हो जाती है तो इसके बारे में सबकुछ भूल जाते हैं। 

फिल्म में दिखाया गया है कि सिग्नल पर जैसे एक पूरा उद्योग फलता-फूलता है और इसका संचालन करने वालों में गैंगस्टर और राजनीतिज्ञ भी शामिल होते हैं। ‘ट्रैफिक सिग्नल’ के किरदारों का जिस तरह से चित्रर् िकिया गया है, वह बहुत आसान नहीं है। इसमें न ही कोई चमक-दमक है और न ही कलाकार किसी डिजाइनर के कपड़ों में स्विटजरलैंड के पर्वतों में गाते हुए नजर आते हंैं। 

फिल्म में ट्रैफिक सिग्नल का परिदृश्य है, किरदार काफी सामान्य हैं, जिन्होंने फटे-पुराने कपड़े पहन रखे हैं और जिनकी भाषा बेहद ही अशिष्ट और गंवारों की तरह होती है। मधुर ने उस रास्ते पर चलने की हिम्मत की है, जिसपर चलने की हिम्मत कोई भी नहीं जुटा पाता। ‘ट्रैफिक सिग्नल’ कोई उपदेशात्मक फिल्म नहीं है। यह भारत के चकाचाैंध भरे शहर में चमक-दमक से दूर रहने वाली एक दुनिया के प्रति हमारी आंखें और दिमाग खोलने का काम करती है। 

सिलसिला (कुर्ािल खेमू) एक अनाथ युवा लड़का है, जिसकी दुनिया ही सिग्नल पर बसती है। उसके लिए सिग्नल ही कार्यस्थल है और वही घर भी। वह सिग्नल पर काम करने वाले हर किसी व्यक्ति से प्यार करता है और उन्हें अपने परिवार की ही तरह मानता है, लेकिन जब व्यवसाय में कोई टांग अड़ाने की कोशिश करता है तो उसे छोड़ता नहीं है।

सिलसिला का दोस्त जाफर (डी. संतोष) भी सिग्नलों पर पैसे इकट्ठे करने का काम करता है। ये दोनों शहर के माफिया हाजी (सुधीर मिश्रा) के लिए पैसे इकट्ठे करते हैं और शहर के नेताओं से माफिया की सांठगांठ है, जिससे सिलसिला खुश नहीं है। इस दुनिया से बाहर निकलने की कोशिश में संयोग से वह एक बड़ी साजिश में फंस जाता है। सिलसिला को पता है कि हाजी बहुत ताकतवर है और वह उसका मुकाबला नहीं कर सकता।

‘पेज 3’ की ही तरह ‘ट्रैफिक सिग्नल’ भी मिश्रित किरदारों की कहानी है। वास्तव में कहानी की शुरुआत फिल्म के दूसरे भाग के मध्य से शुरु होती है और कहानी में मोड़ तब आता है, जब कुछ गुंडे इंजीनियर मनोज जोशी की हत्या कर देते हैं और यह घटना उस समय को दर्शाती है, जिसमें हम रहते हैं। फिल्म का क्लाइमैक्स अपरंपरागत है। इस फिल्म में कोई हीरोगिरी या भाषर्बिाजी नहीं है। इसमें कोई भी एक व्यक्ति विपरीत स्थितियों से लड़ाई करता नहीं नजर आता। फिल्म में गे सेक्स वर्कर्स तथा नशेड़ियों पर खास तौर से प्रकाश डाला गया है।

मुंबई पुलिस

यह फिल्म मलयालम में है। वर्ष 2013 में बनी इस फिल्म में गे सेक्स दिखाया गया है। इसमें पृथ्वीराज और निहाल पिलई गे पार्टनर्स बने हुए हैं। इसमें पृथ्वीराज एक पुलिस अधिकारी बने हुए हैं जिनका फिल्म में नाम एंथनी मोसिज है। जब वे एक मामले की छानबीन कर रहे होते हैं तो उनकी छिपी हुई गे स्टोरी सामने आती है। इसमें गे सेक्स का एक बहुत बड़ा दृश्य है, जो फिल्म का क्लाइमेक्स भी है।

गुलाबी आईना 

वर्ष 2006 में बनी इस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने पारित नहीं किया है, जिस कारण यह अभी तक बैन है। यह हिंदी में बनी पहली ऐसी फिल्म है, जिसमें पूरी फिल्म में लिंग परिवर्तित जोड़ा एक किशोरावस्था गे के साथ दिखाया गया है। यह गे लड़का मर्दों को रिझाता रहता है। यह फिल्म भारत में सेक्स के लिए लिंग परिवर्तन को दिखाती है। फिल्म में ऐसे-ऐसे दृश्य हैं, जिस कारण सेसर बोर्ड ने इसे फिल्माना गुनाह माना है।

हनीमून ट्रेवल्स प्राइवेट लिमिटेड

वर्ष 2007 में बनी यह फिल्म हिंदी में है तथा इसकी निर्देशक रीमा कागती हैं। यह फिल्म एक कॉमेडी ड्रामा है, जिसमें छह विवाहित दंपत्ति दिखाए गए हैं, जो एक दूसरे के प्रति आकर्षित हो जाते हैं। इस फिल्म में गे सेक्स को खुलेआम दिखाया गया है।

रांदू पेनकुत्तीकल

यह मलयालम फिल्म वर्ष 1978 में बनी थी, जिसमें पहली बार समलैंगिक संबंध दिखाए गए थे। इस फिल्म का निर्देशन मोहन ने किया है। यह फिल्म एक लेस्बियन नॉवल रांदू पेनकुत्तीकल यानि दो लड़कियों की कहानी पर बनी है। लेकिन फिल्म का अंत सुखद होता है तथा इन दोनों लड़कियों की शादी पुरुषों से होती है।

देसादानाकिली कारायारिल्ला

यह फिल्म भी मलयालम में है। फिल्म को जो टाइटल है, उसका अर्थ यह है कि दूसरे देश से आकर रहने वाले पक्षी चिल्लाया नहीं करते। कॉलीवुड के सुपर स्टार मोहनलाल ने इस फिल्म में जोरदार रोल निभाया है। यह फिल्म वर्ष 1986 में रिलीज हुई थी तथा इसका निर्देशन पद्मराजन ने किया था। इस फिल्म में श्री और कृतिका ने लेस्बियन जोड़े की भूमिका निभाई है। ये दोनो लड़कियां स्कूल में पढ़ने वाली दिखाई गई हैं, जिनमें से एक लड़के की ड्रेस पहनती है। फिल्म में लेस्बियन संबंधों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

   सांचारम्

सांचारम् का हिंदी में अर्थ है ः यात्रा। यह फिल्म वर्ष 2004 में बनी थी, जिसे ‘लिजी जे पुलापल्ली’ ने निर्देशित किया था। इस फिल्म में लेस्बियन संबंध बहुत ही खुले दिखाए गए हैं।

ना जाने क्यों

यह फिल्म हिंदी में है, जो वर्ष 2010 में बनी है। इसमें गे सेक्स दिखाया गया है। आर्यन वैद व कपिल शर्मा में किस का सीन फिल्माया गया है।

गर्लफ्रेंड

करण राजदान द्वारा निर्देशित यह हिंदी फिल्म वर्ष 2004 में रिलीज हुई थी। इस फिल्म में ईशा कोप्पीकर और अमृता अरोरा ने मुख्य भूमिकाएं निभाई हैं। यह पूरी फिल्म ही लेस्बियन रिलेशनशिप पर बनाई गई है।

फैशन

मधु भंडारकर द्वारा निर्देशित यह फिल्म वर्ष 2008 में बनी थी। फिल्म में गे सेक्स को दिखाया गया है। कहानी के अनुसार समीर सोनी एक गे है, जिसकी उम्र अधिक हो चुकी है, लेकिन शादी नहीं हुई। अफवाह उड़ती है कि उसने गोडसे से शादी कर ली है। फिल्म का विषय भारत में समलैंगिक संबंधों को दर्शाना है। इस फिल्म में अनेक गे डिजायनर दिखाए गए हैं।

सागा

यह फिल्म करण जौहर की है, जिसमें गे सेक्स को प्रमुखता से दिखाया गया है। करण जौहर एक ऐसे फिल्म निर्देशक हैं, जो गे सेक्स को अपनी हर फिल्म में दिखा रहे हैं। उनकी स्टुडेंट ऑफ ईयर भी काफी चर्चित रही है। फिल्म कल हों न हों में उन्होंने शाहरूख खान व सेफ अली खान को समलैंगिक दिखाया है। उनकी कुछ अन्य फिल्में भी हैं, जो समलैंगिक संबंधों के कारण चर्चित रही हैं।  इसी प्रकार की बॉलीवुड और हॉलीवुड की अनेक फिल्में हैं, जिनमें अप्राकृतिक यौन संबंधों और समलैंगिकता को स्पष्ट दिखाया गया है।

J.K.Verma Writer

9996666769

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