Homosexuality and Unnatural Sex Relations-18 : अप्राकृतिक यौन संबंधों और समलैंगिकता में यौन अज्ञानता

      इस बात को सेक्स स्पेशलिस्ट ही नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक और सामाजिक मामलों के विशेषज्ञ भी स्वीकार करते हैं कि अप्राकृतिक यौन संबंधों और समलैंगिकता में यौन अज्ञानता एक बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है। यौन विज्ञान की अज्ञानता से विवाहित एवं अविवाहित दोनों ही भटक जाते हैं। यौन शिक्षा के अभाव में नर-नारी दोनों ही गुमराह हो जाते हैं तथा अनेक प्रकार के अप्राकृतिक कार्यों में संलग्न होकर काम (सेक्स) के प्रति विकृत धारर्ािओं में उलझ जाते हैं और अपने जीवन को स्वयं ही विषाक्त बना डालते हैं। आज चारों ओर यौन शिक्षा की आवश्यक्ता एवं अनिवार्यता के महत्व स्वीकारा जा रहा है। यौन शास्त्र की सही जानकारी न होने के कारर् िनवयुवक अनेक शारीरिक और मानसिक बीमारियां के शिकार हो रहे हैं। यौन शिक्षा वर्जित होने के कारर् िही यौन अपराधों में भी निरन्तर वृद्धि हो रही है।

कामसूत्र के रचयिता महर्षि वात्स्यायन के काल में भी यौन शिक्षा वर्जित थी। नारियों को यौन शिक्षा का कोई अधिकार नहीं था। यौन क्रीड़ा के बारे में सोचना अथवा चर्चा करना एक अपराध था, पाप था। जब स्वयं पुरुष वर्ग ही यौन शिक्षा से वंचित था, तब स्त्रियों के लिए यौन शिक्षा की कल्पना करना भी संभव नहीं था। जन-मानस यह सोच भी नहीं सकता था कि नारियों को यौन शिक्षा की अनुमति अथवा छूट दी जाए। तत्कालीन समाज में स्त्रियों को शास्त्र का अध्ययन मनन करने की अनुमति नहीं थी। फिर कामशास्त्र के अध्ययन अथवा शिक्षा का प्रश्न ही कहां उठता?

परन्तु महर्षि के विचार क्रान्तिकारी एवं धनात्मक (च्वेपजपअम) थे। उन्होंने स्त्रियों को यौन शिक्षा देने की स्पष्ट अनुशंसा की। वे जानते थे कि नारी ही गृहस्थ जीवन की करर््िधार है और सुखी दाम्पत्य जीवन एवं संपन्नता के लिए उसे भी अपने पति के समान ही यौन शास्त्र में पारंगत होना चाहिए। उनके क्रान्तिकारी विचारों का रूढ़िवादियों ने प्रबल विरोध किया परन्तु महर्षि ने आलोचनाओं तथा विरोधों के बावजूद नारियों के लिए यौन शिक्षा का महत्व एवं अनिवार्यता निर्भीक होकर प्रतिपादित की। उन्होंने अत्यंत स्पष्ट रूप से इस बात की अनुशंसा की कि कामशास्त्र के सैद्धांतिक पक्ष को व्यवहार में लाने का उन्हें भी उतना ही अधिकार है जितना कि पुरुष वर्ग को। सैद्धांतिक पक्ष को व्यवहारिक रूप देने के लिए कामशास्त्र का अध्ययन आवश्यक भी है और अनिवार्य भी। संभोग का वास्तविक अर्थ है समान रूप से आनंद का उपभोग और यह तभी संभव है जब पति और पत्नी दोनों ही काम-कला में पारंगत हों।

तत्कालीन समाज में राजकुमारियां, मंत्रियों तथा धनिकों की पुत्रियां कामशास्त्र में प्रवीर् िहोती थीं और वेश्याएं तो यौन कला में दक्ष होती ही थीं। मध्यवर्गीय नारियां पूरर््ितः अनभिज्ञ रहती थीं। अतः महर्षि ने यह प्रतिपादित किया कि प्रत्येक कन्या को विवाह के पूर्व यौन-कला के साथ ही इससे संबंधित सभी 64 कलाओं का ज्ञान एवं कौशल अर्जित कर लेना चाहिए। परन्तु यौन शिक्षा एकांत में केवल उन्हीं अनुभवी नारियों से लेनी चाहिए जो इसमें माहिर हों। इस कार्य के लिए उन्होंने निम्नलिखित व्यक्तियों के माध्यम से यौन कला सीखने की अनुशंसा की है ः

1ण् दाई की कन्या (जिसे संभोग का व्यवहारिक ज्ञान एवं अनुभव हो)

2ण् अंतरंग और विश्वस्त सहेली

3ण् अपनी हमउम्र मौसी

4ण् बूढ़ी चरित्रवान दासी

5. विश्वसनीय भिक्षुर्ीि

6. बड़ी बहन (विवाहिता)

महर्षि वात्स्यायन अच्छी तरह से इस सच्चाई को समझते थे कि सेक्स का ज्ञान न होना अनेक विसंगतियों को जन्म दे सकता था। न केवल पुरुष बल्कि स्त्रियां भी अंजाने में अप्राकृतिक संबंधों या समलैंगिकता के शिकार हो सकते थे, जिनसे उन्हें असाध्य रोग हो सकते थे। उन्होंने इस बात की अनुशंसा की कि हर  पुरुष और स्त्री को विवाह से पूर्व ही सेक्स का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए।

प्राचीन युग में गुरुकुलों में सेक्स की शिक्षा दी जाती थी। राजाओे-महाराजाओं की बेटियां व उच्च घराने की लड़कियां सेक्स की शिक्षा लेती थीं। इसका उद्देश्य ही यही था कि वे कहीं अप्राकृतिक यौन संबंधों या समलैंगिकता का शिकार न हो जाएं या फिर सेक्स की जानकारी न होने के कारण ऐसा कुछ न कर बैठें, जिससे उन्हें शारीरिक या मानसिक आघात पहुंचे।

मगर आज...

लेकिन आज जब संचार क्रांति का युग है तथा सेक्स की पहुंच तरह-तरह के सही या गलत रास्तों से बच्चे-बच्चे तक हो गई है, हम जब यौन शिक्षा का जिक्र भी करते हैं तो  दूसरे यह समझते हैं जैसे कोई विस्फोट कर दिया हो। किसी प्रकार का विस्फोट होने वाला है। हमारे समाज में ‘सेक्स’ अथवा ‘यौन’ को आज भी एक ऐसे विषय के रूप में सहज स्वीकार्यता प्राप्त है जो पर्दे के पीछे छिपाकर रखने वाला है। कहीं सागर की गहराई में दबाकर रखने वाला विषय है। यह भारतीय समाज के संस्कारित परिवेश का परिर्ािम है अथवा ‘सेक्स’ को सीमित परिधि में परिभाषित करने का परिर्ािम है कि समाज में ‘सेक्स’ सभी के जीवन में भीतर तक घुला होने के बाद भी ‘आतंक’ का पर्याय लगता है। यह बात सत्य हो सकती है कि भारतीय, सामाजिक, पारिवारिक परम्पराओं के चलते ‘सेक्स’ ऐसा विषय नहीं रहा है जिस पर खुली बहस अथवा खुली चर्चा की जाती रही हो। ‘सेक्स’ को मूलतः दो विपरीत लिंगी प्रार्यििों के मध्य होने वाले शारीरिक संसर्ग को समझा गया है (चाहे वे प्रार्ीि मनुष्य हों अथवा पशु-पक्षी) और इस संकुचित परिभाषा ने ‘सेक्स एजुकेशन’ अथवा ‘यौन शिक्षा’ को भी संकुचित दायरे में ला खड़ा कर दिया है।

सेक्स को समझना होगा

‘यौन शिक्षा’ अथवा ‘सेक्स एजुकेशन’ से पूर्व ‘सेक्स’ को समझना आवश्यक होगा। ‘सेक्स’ का तात्पर्य आम बोलचाल की भाषा में ‘लिंग’ अथवा शारीरिक संसर्ग से लगाते हैं। ‘सेक्स’ अथवा ‘सेक्स एजुकेशन’ का अर्थ मुख्यतः मनुष्य, पशु-पक्षी (विशेष रूप से स्त्री-पुरुष) के मध्य होने वाली शारीरिक क्रियाओं से लगा कर इसे चुनौतीपूरर््ि बना दिया है। एक पल को ‘सेक्स एजुकेशन’ के ऊपर से अपना ध्यान हटाकर मानव जीवन की शुरुआत से उसके अंत तक दृष्टिपात करें तो पता लगेगा कि ‘सेक्स एजुकेशन’ का प्रारम्भ तो उसके जन्म लेने के साथ ही हो जाता है। इसे उम्र के कुछ प्रमुख पड़ावों के साथ आसानी से समझा जा सकता है।

एक-दो वर्ष से लेकर चार-पांच वर्ष तक की उम्र तक के बच्चे में अपने शरीर, लैंगिक अंगों के प्रति एक जिज्ञासा सी दिखाई देती है। इस अबोध उम्र में बच्चे अपने यौनिक अंगों को छूने, उनके प्रदर्शन करने, एक दूसरे के अंगों के प्रति जिज्ञासु भाव रखने जैसी क्रियाएं करते हैं। यही वह उम्र होती है जब बच्चों (लड़के, लड़कियों में आपस में) में जिज्ञासा होती है कि वे इस धरती पर कैसे आए? कहाँ से आए? या फिर कोई उनसे छोटा बेबी कहां से, कैसे आता है? इस जिज्ञासा की कड़ी में आपने इस उम्र के बच्चों को ‘पापा-मम्मी’, ‘डाक्टर’ का खेल खेलते देखा होगा। परिवारों के लिए यह हास्य एवं सुखद अनुभूति के क्षर् िहोते हैं पर बच्चे इसी खेल-खेल में एक दूसरे के यौनिक अंगों को छूने की, उन्हें देखने की, परीक्षर् िकरने की चेष्टा करते हैं (वे आपस में सहजता से ऐसा करने भी देते हैं) पर इसके पीछे किसी प्रकार की ‘सेक्सुअलिटी’, शारीरिक संबंधों वाली बात न होकर सामान्य रूप से अपनी शारीरिक भिन्नता को जानने-समझने का अबोध प्रयास मात्र होता है। इस उम्र में एक प्रकार की लैंगिक विभिन्नता उन्हें आपस में दिखाई देती है। लड़के-लड़कियों को अपने यौनिक अंगों में असमानता, मूत्र त्याग करने की प्रक्रिया में अन्तर, शारीरिक संरचना में विभिन्नता दिखती है जो निश्चय ही उनके ‘लैंगिक बोध’ को जाग्रत करता हैं। देखा जाये तो उन बच्चों की दृष्टि में यह ‘सेक्सुअल’ नहीं है, शारीरिक संपर्क की परिभाषा में आने वाला ‘सेक्स’ नहीं है।

पांच वर्ष से दस वर्ष तक की उम्र के बच्चों में अपने लड़के एवं अपने लड़की होने का एहसास उस अवस्था में आ जाता है जहां उनकी लैंगिक जिज्ञासा तीव्रता पकड़ती है पर वे एक दूसरे से अपने यौनिक अंगों के प्रदर्शन को छिपाते हैं। लड़के-लड़कियों में एक-दूसरे के प्रति मेलजोल का झिझक भरा भाव होता है। इस समयावधि में ‘सेक्स’ से संबंधित जानकारी, शारीरिक परिवर्तनों से सम्बन्धित जानकारी के लिए वे समलिंगी मित्र-मंडली की मदद लेते हैं। इस आधी-अधूरी जानकारी को जो टी0वी0, इंटरनेट, पत्र-पत्रिकाओं आदि से प्राप्त होती है, के द्वारा वे ‘सेक्स’ से संबंधित शब्दावली, यौनिक अंगों से संबंधित शब्दावली को आत्मसात करना प्रारम्भ कर देते हैं। यह जानकारी उन्हें भ्रमित तो करती ही है, अश्लीलता की ओर भी ले जाती है। इस समयावधि में शारीरिक विकास भी तेजी से होता है जो इस उम्र के बच्चों में शारीरिक आकर्षर् िभी पैदा करता है। लड़का हो या लड़की, इस उम्र तक वह विविध स्त्रोतों से बहुत कुछ जानकारी (अधकचरी ही सही) प्राप्त कर चुके होते हैं और यही जानकारी उनमें ‘सेक्स’ के प्रति जिज्ञासा पैदा करती है जिसे ‘सेक्स’ को शारीरिक क्रिया से जोड़ा जाता रहा है। हालांकि परिवार में इस उम्र से पूर्व वे बच्चे अपने माता-पिता अथवा घर के किसी अन्य युगल को शारीरिक संसर्ग की मुद्रा में अचानक या चोरी छिपे देख चुके होते हैं जो उनकी जिज्ञासा को और तीव्र बनाकर उसके समाधान को प्रेरित करती है।  लड़कियों में शारीरिक परिवर्तनों की तीव्रता लड़कों के शारीरिक परिवर्तनों से अधिक होने के कारर् िउनमें भी एक प्रकार की जिज्ञासा का भाव पैदा होता है। अभी तक के देखे-सुने किस्सों, जानकारियों के चलते विपरीत लिंगी बच्चों में आपस में शारीरिक आकर्षर् िदेखने को मिलता है।

खेल-खेल में, हंसते-बोलते समय, पढ़ते-लिखते समय, उठते-बैठते समय, भोजन करते या अन्य सामान्य क्रियाओं में वे किसी न किसी रूप में अपने विपरीत लिंगी साथी को छूने का प्रयास करते हैं। इस शारीरिक स्पर्श के पीछे उनका विशेष भाव (जो भले ही उन्हें ज्ञात न हो) अपनी यौनिक जिज्ञासा को शान्त करना होता है और इसमें उनको उस समय तृप्ति अथवा आनन्दिक अनुभूति का एहसास होता है जब वे अपने विपरीत लिंगी साथी के अंग विशेष-गाल, सीना, कंधा, जांघ आदि का स्पर्श कर लेते हैं। इस यौनिक अनुभूति के आनंद के लिए वे विशेषतः बात-बात पर एक दूसरे का हाथ पकड़ते, आपस में ताली मारते भी दिखायी देते हैं।

दस वर्ष के ऊपर की अवस्था में आने के बाद शारीरिक परिवर्तन, शारीरिक विकास के साथ-साथ यौनिक विकास, यौनिक परिवर्तन भी होने लगता है। यह परिवर्तन लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में तीव्रता से एवं स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। लड़कियों में मासिक धर्म की शुरूआत उनमें एक प्रकार की जिज्ञासा तथा एक प्रकार का भय पैदा करती है। यही वह स्थिति होती है जब भारतीय परिवारों में सम्भवतः पहली बार किसी लड़की को अपनी मां, चाची, भाभी, बड़ी बहिन आदि से ‘सेक्स’ को लेकर किसी प्रकार की जानकारी मिलती है। इस ‘सेक्स एजुकेशन’ में जिज्ञासा की शान्ति या जानकारियों की प्राप्ति कम, भय, डर, सामाजिक लोक-लाज का भूत अधिक होता है। ऐसी ‘यौन शिक्षा’ लड़कियों में अपने यौनिक-शारीरिक विकास के प्रति भय ही जाग्रत करती है, उनकी किसी जिज्ञासा को शान्त नहीं करती है।

लड़कों में यह स्थिति और भी भयावह होती है। परिवार से किसी भी रूप से कोई जानकारी न दिए जाने के परिर्ािमस्वरूप वे सभी अपने मित्रों, पुस्तकों, इंटरनेट आदि पर भटकते रहते हैं और थोड़ी सी सही जानकारी के साथ-साथ बहुत सी भ्रामक जानकारियों का पुलिंदा थामें भटकते रहते हैं। शारीरिक विकास, यौनिक अंगों में परिवर्तन, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षर्,ि सेक्स संबंधी जानकारी, शारीरिक संसर्ग के प्रति जिज्ञासा अब जिज्ञासा न रह कर प्रश्नों, परेशानियों का जाल बन जाता है। इसमें उलझकर वे शारीरिक संबंधों,  टीनएज प्रेगनेंसी, गर्भपात, यौनजनित रोग, आत्महत्या जैसी स्थितियों का शिकार हो जाते हैं। और यही वह उम्र होती है, जब युवाओं का सेक्स रूझान भी अचानक बदल सकता है और वे अप्राकृतिक यौन संबंधों या समलैंगिकता की ओर प्रवृत हो सकते हैं।

इन सारी स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो क्या लगता नहीं है कि जिस यौनिक उत्तेजना, यौनिक जिज्ञासा, लंैंगिक विभिन्नता, शारीरिक विभिन्नता, शारीरिक-यौनिक विकास, शारीरिक संबंध, विपरीत लिंगी आकर्षर् िके प्रति जिज्ञासा बचपन से ही रही हो उसका समाधान एक सर्वमान्य तरीके से हो, सकारात्मक तरीके से हो, न कि आधी-अधूरी, अधकचरी, भ्रामक जानकारी के रूप में हो? यहाँ ‘सेक्स एजुकेशन’ की वकालत करने, उसको लागू करने अथवा देने के पूर्व एक तथ्य विशेष को मन-मस्तिष्क में हमेशा रखना होगा कि यह शिक्षा उम्र के विविध पड़ावों को ध्यान में रखकर अलग-अलग रूप से अलग-अलग तरीके से दी जानी चाहिए। ऐसा नहीं कि जिस ‘यौन शिक्षा’ के स्वरूप को हम छोटे बच्चों को दें, वही स्वरूप टीनएजर्स के सामने रख दें।

बच्चों की दुनिया पर निगाह डालें तो हमें पता चलेगा कि ज्यादातर बच्चे लड़के-लड़किया दोनों ही शारीरिक दुराचार का शिकार होते हैं।। हम इसके कारर्ोिं का पता लगाए बिना इस अपराध को मिटाना तो दूर, इसे कम भी नहीं कर सकते। बड़ी आयु के लोगों द्वारा बच्चों के शारीरिक शोषर् िकी घटनाओं के साथ-साथ अब बच्चों द्वारा ही आपस में शारीरिक दुराचार की घटनाएं भी सामने आने लगीं हैं। यहां हम बच्चों को ‘यौन शिक्षा’ के द्वारा स्त्री-पुरुष संबंधों, मासिक धर्म, गर्भधारर्,ि शारीरिक संबंधों की जानकारी देकर उनका भला नहीं कर सकते।  इस उम्र के बच्चों को ‘यौन शिक्षा’ के माध्यम से समझाना होगा कि एक लड़के और एक लड़की के शारीरिक अंग क्या हैं? उनमें अंतर क्या हंै? हमें बताना होगा कि उनके शरीर में यौनिक अंगों की महत्ता क्या है? इन अंगों का इस उम्र विशेष में कार्य क्या है? इन बातों के अलावा इस उम्र में वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ‘सेक्स एजुकेशन’ के रूप में बच्चों को समझाना होगा कि किसी भी लड़का-लड़की के शरीर के यौनिक अंग उसके व्यक्तिगत अंग होते हंैं, जिनका प्रदर्शन नहीं किया जाना चाहिए। शरीर के इन अंगों को न किसी को स्पर्श करने देना चाहिए न किसी दूसरे के यौनिक अंगों को स्पर्श करना चाहिए। किसी के कहने पर भी उसके इन अंगों का स्पर्श नहीं करना चाहिए और न ही अपने इन अंगों का स्पर्श करवाना चाहिए यदि कोई ऐसा करता भी है (भले ही प्यार से या कुछ देकर या जबरदस्ती) तो तुरंत अपने माता-पिता, शिक्षकों अथवा किसी बड़े को इसकी जानकारी देनी चाहिए।

हमारे पारिवारिक-सामाजिक ढांचे में अभी भी एक बहुत बड़ी खामी यह है कि यदि कोई बच्चा अपनी यौनजनित जिज्ञासा को शांत करना चाहता है तो हम या तो उसे अनसुना कर देते हैं या फिर उसे डांट-डपट कर शांत करा देते हैं। यदि किसी रूप में उसके सवालों का जवाब देते हंैं तो इतनी टालमटोल से कि बच्चा असंतुष्ट ही रहता है। यही असंतुष्टता उसे यौनिक हिंसा, शारीरिक दुराचार और अप्राकृतिक यौन संबंधों का शिकार बनाती है। माता-पिता, शिक्षकों को ‘यौन शिक्षा’ के माध्यम से बच्चों को उनकी जिज्ञासा को सहज रूप से हल करना चाहिए। हां, यदि सवाल इस प्रकार के हों जो उसकी उम्र के अनुभव से परे हैं अथवा नितांत असहज हैं तो उनका उत्तर ‘अभी आपकी उम्र इन सवालों को समझने की नहीं है’ जैसे सुलभ वाक्यों के द्वारा भी दिया जा सकता है। बच्चों के प्रश्नों के उत्तर उनकी सवालों की प्रकृति और परिस्थितियों पर निर्भर करती है। इसी तरह टीनएजर्स की ‘यौन शिक्षा’ का स्वरूप अलग होगा।

‘सेक्स एजुकेशन’ की विशेष आवश्यकता टीनएजर्स को, यानि किशोरावस्था में है। यदि देखा जाये तो यह वह उम्र है जो ‘सेक्स लाइफ’ को 

आधुनिकतम जिज्ञासा से देखती है। जो आधुनिकतम संक्रमर् िके दौर से गुजर रही होती है। शारीरिक-यौनिक विकास एवं परिवर्तन, विपरीत लिंगी आकर्षर्,ि शारीरिक सम्बन्धों के प्रति जिज्ञासा उन्हें शारीरिक सम्बन्धों की ओर ले जाती है जो विविध यौनजनित रोगों (एसटीडी) को उपहार में देती है। शारीरिक-यौनिक विकास एवं परिवर्तन को समझने की चेष्टा में वे किसी गलत जानकारी, बीमारी का शिकार न हों, एच0आई0वी0 एड्स जैसी बीमारियों के वाहक न बनें इसके लिए इस उम्र के लोगों को ‘सेक्स एजुकेशन’ की आवश्यकता है। ‘यौन शिक्षा’ का पर्याप्त अभाव इस आयु वर्ग के लोगों को यौनिक जानकारी की प्राप्ति अपने मित्रों, ब्लू फिल्मों, पोर्न साइट आदि से करवाती है जो भ्रम की स्थिति पैदा करती है। इन स्त्रोतों से जानकारियां भ्रम की स्थिति उत्पन्न करने के साथ-साथ शारीरिक उत्तेजना भी पैदा करती हैं जो अवांछित संबंधों, बाल शारीरिक शोषर्,ि अप्राकृतिक संबंधों आदि का कारक बनती है। अपनी शारीरिक-यौनिक इच्छापूर्ति मात्र के लिए किया गया शारीरिक-संसर्ग टीनएज प्रेगनेन्सी, गर्भपातों की संख्या बढ़ाने के साथ-साथ युवाओं में एस0टी0डी0, एच0आई0वी0 एड्स जैसी बीमारियों को तीव्रता से फैलाता है। 

एक सर्वे के अनुसार अकेले दिल्ली में एस0टी0डी0 क्लीनिक में प्रतिदिन आने वाले मरीजों की संख्या का लगभग 57 प्रतिशत 15 से 22 वर्ष के आयु वर्ग के लड़के-लड़कियां हैं। ‘यौन शिक्षा’ का अभाव इस संख्या को और भी अधिक बढ़ाएगा।

‘यौन शिक्षा’ देने के पीछे यह मन्तव्य कदापि नहीं होना चाहिए कि युवा वर्ग सुरक्षित शारीरिक संबंध बनाए, जैसा कि लगभग एक दशक पूर्व केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री का कहना था कि मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन किसके साथ सोता है बस वे आपस में ‘कंडोम’ का प्रयोग करते हों। इस प्रकार की कथित आधुनिक सोच ने ही भारतीय समाज को विचलित किया है, ‘यौन शिक्षा’ के मायने भी बदले हैं। ‘यौन शिक्षा’ के सकारात्मक एवं विस्तारपरक पहलू पर गौर करें तो उसका फलक उद्देश्यपरक एवं आशापूरर््ि दिखायी पड़ेगा।

‘यौन शिक्षा’ के द्वारा सरकार, समाज, शिक्षकों, माता-पिता का उद्देश्य होना चाहिए कि वे एक स्वस्थ शारीरिक विकास वाले बच्चों, युवाओं का निर्मार् िकरें। ‘यौन शिक्षा’ के एक छोटे भाग जिसमें यौनिक अंगों की जानकारी, गर्भधारर् िकी प्रक्रिया, प्रसव प्रक्रिया, गर्भपात आदि से अलग हट कर ‘यौन शिक्षा’ के द्वारा समाज में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की स्वीकार्यता, उसकी संस्कारिकता, उसके पीछे छिपे मूल्यों, शारीरिक विकास के विविध चरर्ोिं, शरीर के अंगों की स्वच्छता, अनैतिक सम्बन्धों से उपजती शारीरिक बीमारियां, यौनजनित बीमारियों के दुष्परिर्ािम, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों (माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहिन, मित्रों आदि) की आन्तरिकता एवं मर्यादा की जानकारी, उनके मध्य संबंधों की मूल्यता, वैवाहिक जीवन की जिम्मेवारियां, इनके शारीरिक एवं आत्मिक संबंधों की आवश्यकता, आपसी संबंध और उनमें आदर का भाव आदि-आदि अनेक ऐसे बिन्दु हो सकते हैं जो ‘यौन शिक्षा’ के रूप में समझाए जा सकते हैं। इन मूल्यों, संबंधों, आंतरिकता, पारिवारिकता, सामाजिकता, शारीरिकता आदि को समझने के बाद यौनजनित बीमारियों, एच0आई0वी0 एड्स आदि भले ही समाप्त न हो सकें पर इनके रोगियों की संख्या में बढ़ते युवाओं की संख्या में अवश्य ही भारी गिरावट आएगी।

‘यौन शिक्षा’ को लागू करने, इसको देने के विरोध में जो लोग भी तर्क-वितर्क करते नजर आते हैं उनको भी सामाजिक-पारिवारिक-शारीरिक कसौटी पर कसना होगा। यह कहना कि ‘यौन शिक्षा’ तमाम सारी समस्याओं का हल है, अभी जल्दबाजी होगी पर यह कहना कि ‘यौन शिक्षा’ से विद्यालय, समाज एक खुली प्रयोगशाला बन जायेगा, एक प्रकार की ‘ड्रामेबाजी’ है। आज बिना इस शिक्षा के क्या समाज, विद्यालय और तो और परिवार भी क्या शारीरिक संबंधों को पूरर््ि करने की प्रयोगशाला नहीं बन गए हंैं? ‘यौन शिक्षा’ का तात्पर्य अथवा उद्देश्य केवल स्त्री-पुरुष के यौनिक अंगों की जानकारी देना, यौनांगों के चित्र दिखाना, शारीरिक संबंध की क्रिया समझाना, गर्भधारर्-िप्रसव की प्रक्रिया समझाना मात्र नहीं है। समाज में शारीरिक संबंधों को पवित्रता प्राप्त है जो सिर्फ पति-पत्नी के मध्य ही स्वीकार्य हैं और उनका उद्देश्य शारीरिक सुख-संतुष्टि के अतिरिक्त संतानोत्पत्ति कर समाज को नई पीढ़ी प्रदान करना भी है।

 ‘यौन शिक्षा’ की कमी ने पश्चिमी खुले संबंधों को भारतीय समाज मेंें पर्दे के पीछे छिपी स्वीकार्यता दी और पति-पत्नी के विश्वासपरक, पवित्र रिश्ते से कहीं अलग शारीरिक संतुष्टि की राह अपनायी। परिर्ािमतः टीनएज प्रेगनेंसी, बिन ब्याही माएं, यौनजनित बीमारी से ग्रसित युवा वर्ग, बलात्कार, बाल शारीरिक शोषर्,ि गर्भपात, कूड़े के ढ़ेर पर मिलते नवजात शिशु, अप्राकृतिक यौन संबंध, समलैंगिकता, आत्महत्याएं आदि जैसी शर्मसार करने वाली घटनाओं से हम नित्य ही दो-चार होते हैं। ‘यौन शिक्षा’ के स्वरूप, उद्देश्य, शैली के अभाव ने ही परिवार नियोजन के प्रमुख हथियार ‘कण्डोम’ को अनैतिक सम्बन्धों के, यौनजनित रोगों के, समय-असमय शारीरिक सुख प्राप्ति के, यौनाचार के सुरक्षा कवच के रूप में सहज स्वीकार्य बना दिया है। अच्छा हो कि ‘कण्डोम, बिन्दास बोल’, ‘आज का फ्लेवर क्या है?’, ‘कन्ट्रासेप्टिव पिल्स’ जैसे विज्ञापनों से शिक्षा लेते महानगरों के सुलभ शौचालयों एवं अन्य सार्वजनिक स्थलों पर लगी ‘कण्डोम मशीनों’ पर भटकते; पोर्न साइट, नग्न चित्रों में शारीरिक-यौनिक जिज्ञासा को शान्त करते बच्चों, युवाओं को सकारात्मक, उद्देश्यपरक, संस्कारपरक, मूल्यपरक ‘यौन शिक्षा’ से उस वर्जित विषय की जानकारी दी जाये जो मानव जीवन का एक महत्वपूरर््ि हिस्सा होने के बाद भी किसी न किसी रूप में प्रतिबंधित है।

   भारत में यौन शिक्षा प्रतिबंधित

भारत में यौन शिक्षा प्रतिबंधित है। 2005 में एडोलसेंट एजुकेशन प्रोग्राम भारत सरकार द्वारा शुरू किया गया था। लेकिन अध्यापकों, अभिभावकों व नीति निर्माताओं ने आपत्ति जताई। 2007 में यह प्रोग्राम प्रतिबंधित कर दिया गया। सिर्फ राजस्थान, गुजरात और केरल ने इसके बाद यौन शिक्षा के अलग संस्करर् िकी स्थापना की। 

देश की अधिकांश आबादी गांवों में निवास करती है और जिसका सामाजिक-सांस्कृतिक ताना-बाना कुछ विशेष तरह का है। इस कारण खुलेआम सेक्स का नाम भी लेना गुनाह समझा जाता है। ऐसे में भारत में यौन शिक्षा कितना कारगर साबित हो सकती है, सोचने वाली बात होगी। अब अगर ऐसी जगहों पर इस शिक्षा की बात होगी तो विवाद तो होना ही है।  

हमारे यहां के प्रगतिवादी लोग यौन शिक्षा के पक्ष में हैं। उनका कहना है कि इस शिक्षा से सेक्स अपराध रुकेगें तथा  बच्चे सेक्स के प्रति जागरूक होगें।  लेकिन दूसरी ओर जो परंपरावादी लोग हैं,उनका कहना है कि ऐसी शिक्षा देना बेकार की बात है। पश्चिमी देशों मे लगभग हर जगह यह शिक्षा मान्य है, तो वहां क्या होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। अगर अकेले ब्रिटेन को ही देखा जाये तो वहां की हालत क्या है? वहां की लड़कियां शादि से पहले ही किशोरावस्था मे मां बन जाती हंै। कम उम्र में मां बनने वाली लड़कियों के मामले में ब्रिटेन, पश्चिमी यूरोप में सबसे आगे है। संडे टेलिग्राफ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक बड़ी संख्या में गर्भपात के बावजूद स्कूल जाने वाली लड़कियों में गर्भधारर् िकी संख्या तेजी से बढ़ी है। स्वास्थ्य विभाग की वेबसाइट के हवाले से एक अखबार ने लिखा है कि हर साल 18 साल से कम उम्र की लगभग 50ए000 लड़कियां गर्भवती हो जाती हैं।ं अगर यौन शिक्षा से ये सब होता है तो क्या इसे हमें मान्यता देनी चाहिए।

 इस तरह ब्रिटिश सरकार ने पहली बार यह माना है कि यौन शिक्षा कम उम्र की लड़कियों में गर्भधारर् िपर लगाम लगाने में नाकाम रही है। अब बताइए कि ऐसी शिक्षा की क्या जरूरत है हमारे समाज को। हमारी सरकार हमेशा से पश्चिमी देशो के परिवेश को अपनाना चाहती है लेकिन क्यों। वहां के बच्चों को शुरू से ही यौन शिक्षा दी जाती है तो परिर्ािम क्या है, हम सब जानते हैं। 

एड्स की रोकथाम के लिए जब भारत के स्कूलों में यौन शिक्षा शुरू करने के प्रयास किए गए थे और इसके लिए पाठ्यक्रम तैयार किया गया था, तो इन प्रयासों को झटका देते हुए राज्यसभा की याचिका समिति ने भी यह कह दिया था कि यदि स्कूलों में यौन शिक्षा शुरू की गई तो फिर भारत में भी इसके वही खतरे हो सकते हैं जिनसे ब्रिटेन, अमेरिका और फ्रांस के स्कूल जूझ रहे हैं। इन देशों में कम उम्र में गर्भधारर् िबढ़ा है और कुंवारेपन की आयु में कमी आई है। इसलिए स्कूलों में छात्रों को यौन शिक्षा नहीं, बल्कि नैतिक शिक्षा दिए जाने की जरूरत है। वैंकैया नायडू की अध्यक्षता वाली समिति ने यौन शिक्षा देने के लिए तैयार पाठ्यक्रम को अश्लील करार दिया। समिति ने कहा कि यौन शिक्षा की सामग्री ऐसी है कि सांसद और बुद्धिजीवी इसके पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन को देखने के लिए भी तैयार नहीं हुए। समिति ने देश भर के अभिभावकों, बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों से इस मुद्दे पर कमेंट मांगे। 4ण्85 लाख प्रतिक्रियाओं में ज्यादातर ने स्कूलों में यौन शिक्षा का विरोध किया है। यूनीसेफ, नाको की मदद से दिल्ली सरकार द्वारा तैयार यौन शिक्षा के पाठ्यक्रम को एचआरडी मिनिस्ट्री की मंजूरी पर भी समिति ने आश्चर्य प्रकट किया है। समिति का कहना है कि पाठ्यक्रम भारतीय संस्कृति के खिलाफ है तथा यह पाश्चात्य सभ्यता को बढ़ावा देता है। इसमें यौन शिक्षा के नाम पर यौन स्वच्छंदता को बढ़ावा देने के उपाय किए गए हैं। पाठ्यक्रम यह नहीं सुझाता कि कम उम्र में यौन संबंध नहीं बनाने चाहिएं बल्कि कंडोम इस्तेमाल करने की सलाह देता है। समिति चाहती है कि छात्र-छात्राओं को यह पढ़ाया जाए कि विवाह की कानूनी उम्र से पहले यौन संबंध समाज के खिलाफ हैं। साथ ही इसके कानूनी पहलू बताएं जाएं मसलन, 16 वर्ष से पूर्व किया गया सैक्स रेप होता है। यौन संक्रमित रोगों के बारे में जीव विज्ञान में चेप्टर होना चाहिए। लेकिन यह दसवीं के बाद की कक्षाओं के लिए होना चाहिए। कुल मिलाकर सच्चाई यह है कि भारत में अप्राकृतिक यौन संबंध, यौन विकृतियां ओर समलैंगिकता रोकने के लिए यौन शिक्षा के जहां एक ओर बहुत फायदे गिनवाए जा रहे हैं, वहीं इस शिक्षा के खिलाफ भी अधिकांश भारतीयों की आवाज बुलंद है।

मगर ये हैं हालात

 इसके बावजूद आज हालात क्या हैें, इसे भी समझ लेना बहुत जरूरी है। 

0 आज ज्यादातर माता-पिता को यह चिंता सता रही है कि कहीं उनके बच्चे इंटरनेट पर आपत्तिजनक तस्वीरें या वीडियो तो नहीं देख रहे? 

0  स्मार्टफोन और टैबलेट के आने से बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखना लगातार मुश्किल होता जा रहा है।

0 माता-पिता इस बात की भी लगातार चिंता कर रहे हैं कि कहीं उनके बच्चे गलत संगत में पड़कर समलैंगिक तो नहीं हो रहे? या फिर उनका रूझान अप्राकृतिक यौन संबंधों की तरफ तो नहीं हो रहा?

0 अनेक अभिभावकों का यह मानना है कि उनके बच्चों को स्कूल में यौन शिक्षा दी जाए ताकि वे पोर्नोग्राफी की असलियत को समझ सकें तथा इनकी तरफ उनका रूझान न हो।

इंग्लैंड में मिडलसेक्स यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट के मुताबिक बड़ी संख्या में बच्चोे की पहुंच आज पोर्नोग्राफी तक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पोर्नोग्राफी से लोगों का सेक्स और रिश्तों के प्रति नजरिया बदल जाता है और इस वजह से कई बार किशोर बेहद कम उम्र में यौन संबंध बना लेते हैं। इतना ही नहीं, इंटरनेट पर अप्राकृतिक यौन संबंधों व समलैंगिकता को आम दिखाया जाता है, जिनसे उनका रूझान ऐसे संबंधों की तरफ भी हो जाता है। सामान्य लड़के-लड़कियां भी समलैंगिक संबंधों को सामान्य मानने लगते हैं और उनका रूझान ऐसे संबंधों की तरफ हो जाता है। हालांकि अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि इस बात के ज्यादा सुबूत नहीं मिले हंै कि पोर्न देखने से सीधे तौर पर वर्ताव पर क्या असर पड़ता है।

रिपोर्ट की सह लेखिका डॉक्टर मरिंडा हॉरवथ स्कूल में यौन शिक्षा पर जोर देते हुए कहती हंैं, ‘सेक्स और रिश्तों के बारे में बच्चों से बात करने के लिए यौन शिक्षा एक जरूरी और अहम शुरुआत हो सकती है। ऐसा करने से सेक्स से जुड़ी सामग्री देखने की ललक कम होगी। पर ये शिक्षा उम्र के हिसाब से दी जानी चाहिए।’

कैसे मिले यौन शिक्षा

डॉक्टर मरिंडा का कहना है, ‘बच्चों और युवाओं को वो जगह और आजादी दी जानी चाहिए कि वो पोर्नोग्राफी और इससे जुड़े अनुभवों पर बात कर सकें। इस मुद्दे पर बच्चों और युवाओं के पास कहने के लिए बहुत कुछ है। शोध का केंद्र बिंदु बच्चों को ही होना चाहिए लेकिन पोर्न से जुड़े शोध में बच्चों को ध्यान में नहीं रखा जाता।’

डॉक्टर हॉरवथ के शोध के मुताबिक ‘पोर्न देखने की ललक के पीछे की वजहों में कौतुहूल, लुत्फ उठाना व साथियों का दबाव रहता है।’ 

लैंकेस्टर यूनिवर्सिटी के डॉक्टर मार्क लिमर कहते हैं, ‘हमें बच्चों को ये समझाना होगा कि सेक्स की रिश्तों में अपनी जगह है और ये बहुत निजी चीज है। लेकिन हम बच्चों को हमेशा यही सिखाते रहते हैं कि ये मत करो जबकि हमें उन्हें समझाना चाहिए।’

डॉक्टर मार्क लिमर का मानना है कि बच्चे पोर्नोग्राफी की तरफ तब आकर्षित होते हैं जब सेक्स और रिश्तों से जुड़े उनके सवालों का क्लासरूम में उस तरह से जवाब नहीं दिया जाता जैसे धूम्रपान आदि के बारे में बताया जाता है।

हालांकि यौन शिक्षा कैसे दी जाए इस पर भी भारत सहित लगभग हर देश में काफी बहस हुई है।

सेक्स एजुकेशन फोरम नाम की संस्था में काम करने वाली लूसी कहती हैं, ‘प्राइमरी स्कूल में बच्चों को गुप्त अंगों के बारे में सही जानकारी दी जानी चाहिए ताकि व्यस्क भी इस पर बात करते हुए असहज महसूस न करें। 

दूसरा बच्चों को समझाना होगा कि क्या कानूनी है और क्या गैर कानूनी, उन्हें सेक्सटिंग के बारे में बताना होगा यानी फोन पर अश्लील संदेश या तस्वीर भेजने के बारे में।

वे कहती हैं कि हम ये इंतजार नहीं कर सकते कि बच्चे पोर्नोग्राफी की ओर बढ़ें बल्कि इस बारे में पहले से खुल कर बच्चों से बात करनी चाहिए। ब्रिटेन में स्वतंत्र नियामक संस्था ऑफकॉम के सर्वे के मुताबिक अधिकतर बच्चे इंटरनेट पर ज्यादा वक्त बिता रहे हैं और इस बात के आसार ज्यादा हैं कि वे अकेले में पोर्न देखते हैं, जिसमें विकृत सेक्स भरा रहता है। इंटरनेट आज बच्चे-बच्चे की पहुंच में है। अगर किशोर अकेले में अपने कमरों में इंटरनेट पर जाते हैं तो इस बात की लगभग गारंटी है कि कि वे ऑनलाइन पोर्नोग्राफी देखते हैं।

अगर उपरोक्त सभी बातों पर गौर किया जाए तो पता लगता है कि अमेरिका में यौन शिक्षा के बावजूद यौन अपराधों के बढने के कई अलग कारर् िहो सकते हैं, उसके आधार पर यौन शिक्षा को ही गलत ठहराना हास्यास्पद है।। और भी बहुत लोगों के मुंह से इस प्रकार के वाक्य सुने हंैं कि हमारे विद्यार्थियों को भोग नहीं योग की शिक्षा की आवश्यकता है। इस प्रकार के तर्क देने वालों को सबसे पहले यौन शिक्षा देनी चाहिए, जिससे कि वे समझ सकें कि असल में यौन शिक्षा भोग की शिक्षा नहीं है। उन्हें इस बात का भी पता रहना चाहिए कि इंटरनेट के माध्यम से सेक्स आज बच्चे-बच्चे तक पहुंच रहा है। किशोरावस्था में पहुंचने से पहले ही लड़के-लड़कियां मोबाइल पर इंटरनेट के माध्यम से खुले सेक्स 

संबंधों, अप्राकृतिक यौन संबंधों व समलैंगिकता को खुलेआम देख रहे हैं। इसलिए यौन शिक्षा का महत्व और बढ़ जाता है।

यौन शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या

  यौन शिक्षा के साथ सबसे बडी समस्या यह है कि लोग इसका अर्थ बडा ही सीमित समझते हैं। भारत और भारतवासियों के साथ सबसे बडी समस्या ये है कि हम आधी समस्याओं को नकार कर उनसे पीछा छुडाने की बात करते हैं   आज बड़े शहर तो छोड़िये, छोटे शहरों व गांवों तक में सेक्स स्कैंडलों की बाढ़ आई हुई है। किसी भी लड़की का एमएमएस या नंगी फिल्म बनाकर दोस्तों के पास भेज देना आम बात हो गई है। 

लेकिन हमारा सामाजिक ढ़ाचा ऐसा है कि इसमें हर कदम पर सेक्स व्यक्तिगत संबंधों के बारे में दोहराभास है। उदाहरर् िके तौर पर बहुत से युवा लडके किसी लडकी से प्रेम संबंध या फिर केवल प्रेमालाप करने के लिये संबंध स्थापित करना चाहते हैं परन्तु उनके परिवार की कोई युवती ऐसा करे तो उसकी खैर नहीं। पडौस की किसी लडकी का किसी लडके के साथ चक्कर चल रहा हो तो ये मजा लेकर एक दूसरे को बताने वाली बात है और हमारे खानदान में तो ऐसा हो ही नहीं सकता, ऐसा सोचा जाता हैं। 

यौन शिक्षा देते समय निम्नलिखित बातें तो जरूर समझाई जानी चाहिएं। 

0 किसी जानकार अथवा अनजान व्यक्ति का किसी भी बहाने से उनके शरीर का अवांछनीय स्पर्श एक अपराध है।

0 प्रेम सम्बन्ध होने के बावजूद भी किसी भी अवांछनीय कृत्य का विरोध करना आपका अधिकार है ।

0 किसी भी समय अपने आस पास के वातावरर् िमें सजग रहकर आप स्वयं 

आधे यौन अपराधों को कम कर सकते हंैं, लेकिन इसके लिये जागरूकता की आवश्यकता है।

ब्रिटेन में लिनेट स्मिथ के कैसलडाइक स्कूल में यौन शिक्षा देने का जो रास्ता चुना है, उसकी लगभग हर देश में आज चर्चा है। वे छोटे बच्चों को यौन शिक्षा देकर उनमें सेक्स की समझ विकसित कर रही हैं ताकि वे किसी विकृत सेक्स में न फंेसें या उनके साथ कोई अप्राकृतिक सेक्स न कर पाए। उनके स्कूल में बच्चों को कम उम्र से ही इस बारे में शिक्षित किया जाने लगा र्है। स्मिथ न केवल बच्चों को यौन शिक्षा देती हैं बल्कि आसपास के हम्बरसाइड, उत्तरी लिंकनशायर और यॉर्कशायर जैसे इलाकों के शिक्षकों को भी यौन शिक्षा का प्रशिक्षण देती हैं। 

चित्रों के सहारे समझाना

उनका तरीका सहज-सरल है, वो हाथ से बने चित्रों का सहारा लेती हैं। हर चित्र को दिखाने के बाद बच्चों से थम्स-अप या अंगूठा नीचे कर अच्छी और खराब बातों पर प्रतिक्रिया जाहिर करने को कहती हैं।

लिनेट चित्रों वाले कार्डों के सेट को स्कूल के नए यानी चार साल के बच्चों से सेकेंडरी स्कूल में जाने वाले बच्चों को दिखाती हैं। बच्चे इसे आनंददायक पाते हैं। कुछ हंसते हैं, कुछ चिढ़ से चिल्लाते हैं, लेकिन आधे घंटे के सत्र में 30 बच्चों की पूरी क्लास, टीचर और अस्सिटेंट शामिल होते हैं ताकि यौन शिक्षा का सही ढंग से प्रचार-प्रसार हो। 

मिस स्मिथ कहती हैं कि वो उस उम्र को जानना चाहती हैं जहां पहुंचकर बच्चे इन प्रभावों में आने लगते हैं।

      समझाने का तरीका

अपने हाथ से बनाए गए कार्डों को दिखाती हुई वे कहती हैं, ‘हमारा पहला कार्ड उस लड़की का है, जिसने कपड़े नहीं पहने हैं। ऐसा लग रहा है कि वह नहाने जा रही है। लिनेट बच्चों से इस लड़की के शरीर के उन अंगों की सूची बनाने को कहती हंैं, जिन्हें नहीं छूना चाहिए। बच्चे इसके जवाब में लिखते हैं ः ‘विजर’ और ‘लूसी’। लेकिन वे प्रचलित शब्दों की बजाए वैज्ञानिक नामों के उच्चारर् िपर जोर देती हैं जैसे गुप्तांग, लिंग और योनि का जिक्र आने पर सारी क्लास समवेत स्वर में गाती है।

लिनेट कहती हंैं कि जानकारी और समझ से बच्चों को सुरक्षित रखा जा सकता है। उनके कार्डों में बताया गया है कि अच्छे और खराब स्पर्श क्या हैं? अच्छे स्पर्श पर बच्चे थम्स-अप करते हैं। इसी तरह आपत्तिजनक चित्र आते ही पूरी क्लास एक साथ अंगूठा नीचे करके उसे खराब बताती है।

बच्चे इन चित्रों के संदेश को आसानी से समझते हैं। अगले कार्ड में एक बड़ा बच्चा कम उम्र के बच्चे को स्मार्टफोन पर डाउनलोड की गई एकं गंदी तस्वीर दिखा रहा है। इसे देखकर बच्चे एक साथ चिल्लाते हैं, ‘गलत, गलत, गलत’।

लिनेट बच्चों से कहती हैं,‘किसी को भी तुम्हें इस तरह की चीजें नहीं दिखाना चाहिए। अगर कोई ऐसा करे तो तुरंत किसी को बताओ। हर बच्चे से कहा जाता है कि वो ये सोचें कि ऐसा हो तो वो घर और स्कूल में किससे बताएं।

इसके बाद एक चित्र दिखाया जाता है, जिसमें सोफे के पीछे दो वयस्कों को पोर्न फिल्में देखते दिखाया गया है। लिनेट कहती हंैं, ‘बहुत सी ऐसी फिल्में होती हैं जहां एक्टर बिना कपड़ों के होते हैं, जिसे बड़े हो रहे बच्चे देखना चाहते हैं लेकिन ये छोटे बच्चों के लिए नहीं है।

लिनेट जेक्स कहती हैं ः 90 के दशक के मध्य से मैं ये सेक्स शिक्षा दे रही हूं और इन मामलों में विकास को देख रही हूं। वर्ष 2002 तक इंटरनेट हर किसी को सुलभ हो गया। कहीं अधिक युवा बच्चे पोर्नोग्राफी देखने लगे। ऐसे में 10.11 साल के बच्चे अक्सर उत्सुकता से एक दूसरे से पूछते मिलते कि उन्होंने क्या देखा? इस पर क्लास में मौजूद एक बच्चा बोलता है, ‘मेरा भाई ऐसी पिक्चर्स देखता है, वह 20 साल का है।’

उनका कहना है कि कई बार ऐसा एक्सपोजर असंतुलित सेक्स व्यवहार की ओर धकेल देता है, जो बच्चे को सेक्स शोषर् िकी ओर भी ले जाता है।

बच्चे शुरुआती उम्र में सेक्स के बारे में बहुत कम सवाल पूछते हैं, खासकर तब जबकि उन्होंने ऑनलाइन या मीडिया में कुछ देखा हो या जिसे वो नहीं समझते।

हमेशा बच्चों से बात करिए

अब तो भारत के सुशिक्षित लोगों की एक बड़ी जमात मानती है कि बच्चा जब सेक्स के बारे में कोई सवाल पूछे तो उसे टालने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उसकी उम्र के हिसाब से उसे जवाब देना चाहिए। कुछ माता-पिता कहते हैं कि ‘जब तुम बड़े हो जाओगे तब इस बारे में बात करेंगे।’ वे नहीं जानते कि बच्चे उनके इस जवाब से खामोश होकर बड़े होने का इंतजार नहीं करेंगे। वे इंटरनेट के गूगल से सब कुछ जानने का प्रयास करेंगे। अब इंटरनेट पर उन्हें कैसी जानकारी मिल पाती है, इस विषय में गारंटी से कुछ नहीं कहा जा सकता।

भारत में स्कूली शिक्षा के साथ ही सेक्स शिक्षा को भी पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए कदम उठाए गए, लेकिन आज भी देश के लोगों को सेक्स शिक्षा को अपनाना रास नहीं आया। इसलिए लोगों ने यौन शिक्षा का अच्छा खासा विरोध जताया। किसी भी परिवार या आसपास के लोगों से इस बाबत बातचीत की गई तो किसी ने इसे अच्छा बताया तो किसी ने गलत। लेकिन यौन शिक्षा की जो सच्चाई है, वह इस प्रकार है ः

0 स्कूलों में सेक्स शिक्षा होने से भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर नकारात्मक असर पड़ेगा।

0 सेक्स शिक्षा का बहुत महत्व है। यदि स्कूलों में सेक्स शिक्षा शुरू कर दी जाए तो इसका किशोरों को पथभ्रष्ट होने से रोका जा सकता है, लेकिन इसके लिए जरूरी है बच्चों को सही रूप में पूरर््ि सेक्स शिक्षा दी जाए।

0 स्कूलों में यौन शिक्षा के माध्यम से न सिर्फ भविष्य में यौन संक्रमित बीमारियों से बचा जा सकता है बल्कि असुरक्षित और अप्राकृतिक यौन संबंधों से भी बचा जा सकता है।

0 बच्चों को सही उम्र में सेक्स शिक्षा देने से उनके शारीरिक विकास के साथ ही मानसिक विकास भी पूरी तरह से होता है।

0 आंकड़ों पर गौर करें तो वर्तमान में 27 से 30 फीसदी होने वाले एबॉर्शन किशोरी लड़कियां करवाती हैं, यदि उन्हें सही रूप में यौन शिक्षा दी जाएगी तो वे गर्भपात के जंजाल से आसानी से बच सकती हैं यानी बिन ब्याहे मां बनने से बच सकती हैं।

0 बढ़ती उम्र में बच्चे नई-नई चीजों को जानने के इच्छुक रहते हैं और आज के टैक्नोलॉजी वल्र्ड़ में कुछ भी जानना नामुमकिन नहीं। यदि बच्चों को सही समय पर सही रूप में यौन शिक्षा नहीं दी जाएगी तो अपने प्रश्नों का हल ढूंढ़ने के लिए वे इधर-उधर के रास्ते अख्तियार करेंगे जो कि बच्चों के मानसिक विकास में 

बाधा डाल सकते हैं।

0 भारत में सेक्स शिक्षा लागू होने के साथ-साथ अभिभावकों को भी इस ओर जागरूक होना होगा और अपने बच्चों को सही उम्र में यौन शिक्षा से सरोकार कराना होगा, तभी सेक्स शिक्षा के सकारात्मक प्रभाव दिखाई पड़ेंगे।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आज का युग ग्लोबलाईजेशन का युग है। जो एक देश में हो रहा है, उसका पूरा असर दूसरे देशों पर भी पड़ रहा है। आज जिस तरह से पश्चिमी देशों में अप्राकृतिक यौन संबंधों, समलैंगिकता, विकृत सेक्स और कम उम्र में सेक्स फैला हुआ है, उसका सीधा असर भारत में भी शुरू हो गया है। आज इंटरनेट की पहुंच हर मोबाइल तक पहुंच चुकी है और मोबाइल तक बच्चे-बच्चे की पहुंच हो गई है। ऐसे में सही समय पर सही ढंग से यौन शिक्षा दी जाती है तो बच्चे सेक्स की सच्चाई को समझ सकेंगे और इसका दुरुपयोग करने से बच सकेंगे। अप्राकृतिक यौन संबंध और समलैंगिकता चाहे जड़ से खत्म न हो सके, लेकिन इनकी तरफ रूझान घटाने में जरूर मदद मिलेगी। आज यौन शिक्षा से मुंह मोड़ना समझदारी नहीं कहीं जा सकती। 

J.K.Verma Writer

9996666769

jkverma777@gmail.com

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