Homosexuality and Unnatural Sex Relations-8 : अप्राकृतिक यौन संबंध - कानूनी पहलू

   अप्राकृतिक यौन संबंध : कानूनी पहलू

अप्राकृतिक यौन संबंधों को लेकर विश्व में पहली बार कानून कब बना और उसमें क्या प्रावधान किए गए? इस कानून ने समय गुजरने के साथ-साथ क्या-क्या रूप बदले? आज ये कानून कहां से कहां पहुंच चुके हैं और क्या रंग ला रहे हैं? ये कानून अप्राकृतिक संबंधों पर लगाम लगा रहे हैं या इसे बढ़ावा दे रहे हैं? इस तरह के अनेक सवाल हैं, जिनके उत्तर हम इस अध्याय में तलाश करने का प्रयास करेंगे।

विश्व का पहला मामला

विश्व में पहली बार सन 1290 में इंग्लैंड के फ्लेटा में अप्राकृतिक यौन संबंध के किसी मामले पर सरकार सख्त हुई थी। जिसके बाद कानून बनाकर इसे अपराध की श्रेर्ीि में रखा गया था। बाद में ब्रिटेन और इंग्लैंड में 1533 में बगरी (अननैचरल रिलेशन) एक्ट बनाया गया था और इसके तहत फांसी का प्रावधान किया गया था। 1563 में क्वीन एलिजाबेथ-प्रथम ने इसे फिर से लागू कराया। 1817 में बगरी ऐक्ट से ओरल सेक्स को हटा दिया गया और 1861 में फांसी का प्रावधान भी हटा दिया गया। 

लार्ड मैकाले ने किया था मसौदा तैयार

इसके बाद वर्ष 1860 में लार्ड मैकाले ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 का मसौदा तैयार किया था। इसमें उन्होंेने अप्राकृतिक संबंधों के दोषी के लिए दस वर्ष के कारावास का प्रावधान किया था। उन्होंने मसौदे में साफ लिखा था कि यदि कोई व्यक्ति किसी महिला, पुरुष, बच्चे या पशु के साथ अप्राकृतिक रूप से यौन संबंध, गुदामैथुन ( स्वेच्छा से ही सही) स्थापति करता है तो यह अपराध है। 

इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने अप्राकृतिक संबंधों को लेकर कठोर कानून बनाया था। समलैंगिकता को लेकर तो यह सरकार और भी सख्त हो गई थी। वर्ष 1861में इस सरकार ने समलैंगिक संबंधों को गैर कानूनी घोषित किया था तथा ऐसे संबंध अपनाने वालों के लिए भारतीय दंड संहिता के तहत आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान किया था। बाद में वर्ष 1935 में इस धारा में सुधार किया गया और इसमें मुखमैथुन भी जोड़ दिया गया। 

क्यों बनाया गया कानून

विचार करने वाली बात यह है कि ब्रिटिश सरकार ने आखिर ऐसा क्यों किया था? इतना सख्त कानून बनाने की क्या आवश्यकता पड़ गई थी? इस सवाल का जवाब यह है कि उस जमाने में ब्रिटिश ऑफिसर और सेनाधिकारी भारत में अकेले रहते थे। वे अपने अधीनस्थ सैनिकों से यौन-संबंध स्थापित कर लेते थे। महिलाओं से संबंध बनाने में संतान पैदा होने का डर रहता था, जबकि समलैंगिक संबंधों से उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती थी। इस तरह के संबंधों के कारर् िब्रिटिश राज के शासक-वर्ग में  लगातार अराजकता फैल रही थी। इसके अलावा ऐसे संबंध यूरोप की ईसाई नैतिकता के भी विरुद्ध थे। यही कारण है कि लार्ड मैकाले ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 का मसौदा तैयार किया और ब्रिटिश सरकार ने इस कानून को सख्ती से लागू भी किया, जिससे समलैंगिक संबंधों में जबरदस्त गिरावट आई।

भारत में आज भी यही धारा 

भारतीय दंड संहिता की यह धारा  377आज भी भारत में लागू है। यह बात और है कि समय के साथ-साथ इसका प्रारूप बदलता रहा है तथा इसकी सजा के प्रावधान में भी तब्दीली आती रही है। आज अनेक देश ऐसे हैं, जहां समलैंगिकता पर कोई पाबंदी नहीं है और वहां समलैंगिक विवाह भी हो रहे हैं, तो दूसरी ओर ऐसे देशों की भी कोई कमी नहीं है, जहां ऐसे संबंधोें के लिए सख्त सजा का प्रावधान है। आइए, अब समलैंगिकता को लेकर कुछ देशों के बारे में जानते  हैं ः-

0 78 देशों में आज समलैंगिक विवाहों पर पाबंदी है, इनमें से 41 राष्ट्रमंडल के देश हैं यानि वे देश हैं, जहां कभी ब्रिटिश राज रहा था। ऑस्ट्रेलिया में भी एक ऊंची अदालत ने हाल ही में राजधानी कैनबरा में समलंैंगिक विवाहों को वैध बनाने वाला कानून खारिज कर दिया। यह देश भी राष्ट्रमंडल का सदस्य देश है। 

0 इंग्लैंड और वेल्स में प्रभावी द सेक्सुअल आफेंस एक्ट 1967 बना। वहां यह माना गया कि सरकार समलैंगिकों के खिलाफ बहुत ही बर्बर थी और समलैंगिकों को तमाम कष्ट झेलने पड़ रहे थे। इस बर्बरता के अंत की शुरुआत इस कानून से हुई थी। 

0 सन् 1974 में  अमेरीका तथा बाद में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह मान लिया कि समलैंगिकता कोई शारीरिक या मानसिक बीमारी नहीं, यह सामान्य रूप से यौन चयन है।

0 1981 में नार्वे ऐसा पहला देश बना, जिसने समलैंगिकों के साथ हर तरह के भेदभाव हटा लेने वाला कानून बनाया। इसके बाद फ्रांस, डेनमार्क, स्वीडन, हालैंड, आयरलैंड ने भी ऐसा ही किया।

0 1989 में समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देने की प्रक्रिया डेनमार्क से शुरू हुई थी। वह पहला देश था, जिसने समलैंगिक जोड़ों को विवाहित दंपति के बराबर का दर्जा दिया था. इसके बाद कुछ अन्य यूरोपीय देशों ने उसका अनुसरर् िकिया था।

0 1993 में नार्वे ने एक और महत्वपूरर््ि कदम उठाया। उसने समलैंगिकों को साथ रहने, शादी करने के लिए रजिस्ट्रेशन की अनुमति दे दी।

0 1994 में दक्षिर् िअमेरीका ऐसा पहला देश बना, जिसने पुरुष और महिला समलैंगिकों को संविधान सम्मत अधिकार दिए।

0 1996 में हंगरी की संसद ने एक कानून पास किया, जिसके तहत समलिंगी शादी वैध मानी जाने लगी।

0 दिसंबर 2007 में नेपाल की सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार को उन कानूनों को समाप्त करने का निर्देश दिया, जो समलैंगिकों के खिलाफ भेदभाव करते थे।

भारत में समलैंगिकता का कानून

0 2001 में समलैंगिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले नाज फाउंडेशन ने जनहित याचिका दायर कर भारत सरकार से मांग की कि व्यस्कों के बीच परस्पर सहमति से बने समलैंगिक संबंधों को वैध किया जाए।

0 2 सितंबर 2004 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने नाज फाउंडेशन की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेर्ीि से बाहर रखने की मांग की गई थी।

0 3 अप्रैल 2006 को उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय को इस मामले पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया।

0 दो जुलाई 2009 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने व्यस्कों के बीच परस्पर सहमति से बने समलैंगिक संबंधों को वैध घोषित कर दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा इस तरह समलैंगिकता को वैध ठहराए जाने के बाद भारत इसे वैध मानने वाला दुनिया का 127वां देश बन गया, जबकि उस समय तक लगभग 80 देश अभी भी इसे अपराध की श्रेर्ीि में रख रहे थे। 

दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एपी शाह और न्यायाधीश एस मुरलीधर की खंडपीठ ने अपने इस फैसले के पैराग्राफ 132 में कहा कि हम घोषर्ाि करते हैं कि भारतीय दंड विधान की धारा 377, जो एकांत में समान लिंग के व्यस्कों के बीच आपसी रजामंदी से बनाए गए संबंधों को अपराध मानती है, संविधान के अनुच्छेद 21ए 14 और 15 का उल्लंघन है। लेकिन धारा 377 के तहत बिना रजामंदी के समान लिंग वालों के बीच यौन संबंध और अवयस्क के साथ यौन संबंध अपराध माने जाएंगे। लेकिन इस आदेश में यह स्पष्ट नहीं किया गया कि यह फैसला पूरे देश में लागू होगा या केवल दिल्ली में।

ये थे निरर््िय के मुख्य बिंदु ः

0 धारा 377 संविधान के खिलाफ है और मानव के गौरव की रक्षा का हनन करती है।

0 18 वर्ष से ऊपर के समलिंगी व्यक्तियों के बीच स्थापित होने वाला यौन सबंध गैर कानूनी नहीं है। 

0 वयस्क व्यक्ति आपसी सहमति से समलैंगिक संबंध स्थापित कर सकते हैं।

0 18 वर्ष से कम उम्र के लोगों के बीच यौन संबंध मान्य नही है।

कुछ प्रावधानों को हटाने की की थी मांग

यहां एक बार फिर बता दें कि यह फैसला 2001 में एक हैट्रोसेक्सुअल महिला और नाज फाउंडेशन की संस्थापिका अंजलि गोपालन के प्रयासों का नतीजा था। अंजलि ने धारा 377 के कुछ प्रावधानों को न्यायिक हस्तक्षेप से हटाने की मांग की थी। नाज फाउंडेशन ने दलील दी कि वह ऐसे समलैंगिक पुरुषों के बीच में एड्स रोकथाम कार्यक्रम चलाना चाहता है, पर उसे धारा 377 के चलते काम में दिक्कत आ रही है। 2001 में दिल्ली हाइकोर्ट ने इसे खारिज कर दिया था। पांच साल बाद उच्चतम न्यायालय ने इसे वापस अदालत को भेज दिया। इस बार अंजलि ने आनंद ग्रोवर के नेतृत्व में लायर्स कलेक्टिव के वकीलों की मदद से वर्ष 2009 में यह जीत हासिल कर ली। 

कुछ लोगों का मानना है कि समलैंगिकता को वैध बनाने के लिए वैश्विक सेक्स माफिया काम कर रहा था। वह भारत को मैक्सिको और थाइलैंड से भी बड़ा सेक्स बाजार बनाना चाहता था। हाइकोर्ट का फैसला आते ही जिस तरह लोग खुशी में सड़कों पर उतर आए थे, उसके पीछे भी कोई साजिश समझी गई। 

संस्कृति पुरोधाओं ने दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि सेक्स इंडस्ट्री दुनिया की तीसरी सबसे ताकतवर इंडस्ट्री बन चुकी है। तीन ट्रिलियन डॉलर की यह इंडस्ट्री भारत को अपने कब्जे में लेना चाहती थी। पर धारा 377 उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा थी। उनका ऐतराज था कि अब इस फैसले के बाद दिल्ली, मुंबई जैसी मैट्रो सिटीज में गे-पार्लर और गे क्लब खुलने में देर नहीं लगेगी। यह भी संभव था कि वेश्यावृत्ति को भी कानूनी दर्जा मिल जाए। 

दूसरी ओर अनेक कानूनी विशेषज्ञों का कहना था कि इस धारा का इस्तेमाल नाबालिगों की यौन उत्पीड़न से रक्षा करने में भी किया जाता रहा है। अवकाश प्राप्त न्यायाधीश जे. एन. सल्डान्हा ने भी एक बार इस धारा का इस्तेमाल यौन उत्पीड़न के शिकार हुए 10 साल के बज्चे को इंसाफ देने में किया था और इस मामले में दोषी पाए गए एक तांत्रिक को 10 साल की कैद व 25 लाख रुपये के जुर्माने की सजा मिली थी। न्यायाधीश सल्डान्हा ने खुद युवा वकील के तौर पर तीन दशक पहले मुंबई में लड़े गए एक केस का हवाला दिया। इस मामले में एक युवा कॉलगर्ल ने एक अरबी के खिलाफ शिकायत की थी। उस कॉलगर्ल की शिकायत थी कि अरबी नागरिक ने उसके साथ अप्राकृतिक कुकर्म कर उसे चोट पहुंचाई थी। हालांकि इस मामले में यौन संबंध सहमति से हुआ था, लेकिन वह व्यक्ति समलैंगिक प्रवृत्ति का था। कॉलगर्ल मुआवजा चाहती थी और आखिरकार उस व्यक्ति को दो लाख रुपये का मुआवजा देना पड़ा था। 

दूसरी ओर क्वियर समुदाय ने इस फैसले पर प्रसन्नता जताते हुए कहा कि कुछ लड़के व्यस्क होने के बाद लड़कियों की तरह व्यवहार करना शुरू कर देते हैं। घरवालों को जब यह पता लगता है, तो वे उन्हें परेशान करना शुरू कर देते हैं। उनके मन में निराशा और कुंठा घर करने लगती है। गे और लेस्बियन होना एक मानसिकता है। ऐसे में उन्हें बुरी नजरों से देखने की बजाय उनकी सोच को समझने की जरूरत ज्यादा होती है। उनका कहना था कि जयपुर में समलैंगिकों के लिए पिछले डेढ़ साल से काम कर रही संस्था नई भोर गे और किन्नरों के मनोविज्ञान को समझने के लिए रिसर्च कर रही है। राज्य में लाखों समलैंगिक होने का दावा करने वाली संस्था के कार्यकर्ताओं का कहना था कि उनके पास आने वाले समलैंगिक कई तरह की समस्याएं लेकर आते हैं। समाज, घर-परिवार और कानून से जुड़े लोगों की ब्लैकमेलिंग से ये लोग परेशान रहते हैं। किसी तरह ये लोग अपने जोड़ीदार के साथ जीवन व्यतीत करते हैं। कभी इनके मन में सेक्स चेंज करवाने की बात भी आती है, पर सेक्स चेंज करवाने के चलते इनमें हार्मोनल डिसऑर्डर पैदा हो सकता है। साथ ही सेक्स चेंज करवाने में खर्चा भी काफी आता है, ऐसे में ये लोग ताउम्र परेशान रहते हैं। अब कोर्ट का फैसला आने के बाद यह वर्ग खुद को कानूनी रूप से सुरक्षित महसूस कर रहा है। 

फैसले के खिलाफ याचिकाएं

दूसरी ओर समलैंगिकता को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले से देश भर में बवाल उठ खड़ा हुआ था। अनेक सामाजिक, धार्मिक और गैर राजनीतिक संगठनों ने उच्च न्यायालय के इस फैसले पर कड़ी नाराजगी जताई थी। दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले को उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे दी। चुनौती देने वालों में निम्नलिखित संगठन व व्यक्ति शामिल थे ः 

0 दिल्ली कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स।

0 श्री सुरेश कुमार कौशल, भारत के ज्योतिषाचार्य।

0 क्रांतिकारी मनुवादी मोर्चा।

0 ट्रस्ट गॉडस मिनिस्ट्री।

0 श्री बी0पी0 सिंघल, भारत के ज्योतिषाचार्य

0 अपॉस्टोलिक चर्चिज एलायंस एंड उत्कल क्रिश्चियन फाउंडेशन।

0 ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड।

0 श्री एस0के0 तिजारावाला, योग गुरु बाबा रामदेव के प्रतिनिधि।

0 ज्वायंट एक्शन कॉउंसिल, कानपुर।

0 श्री राममूर्ति तथा दिल्ली हाई कोर्ट रूलिंग के सहायक।

इस मामले की सुनवाई में दूसरी ओर से जो लोग माननीय सर्वोच्च न्यायालय में पेश हुए, वे इस प्रकार हैं ः

0 गे, लेस्बियन, बाइसेक्सुअल व ट्रांसजेंडर आदि लोगों के अभिभावक।

0 नाज फाउंडेशन के प्रतिनिधि।

0 वॉयस ऑफ 377 संगठन के प्रतिनिधि।

0 श्री श्याम बेनेगल।

0 निवेदिता मेनन और उनके शैक्षिक सहयोगी।

0 श्री शेखर शेषाद्रि तथा मानसिक रोगों से जुड़े प्रोफेशनल्स।

0 श्रीमति रत्ना कपूर तथा अन्य कानूनी विशेषज्ञ।

0 भारत सरकार की ओर से ः यूनियन ऑफ इंडिया, होम मिनिस्ट्री, हैल्थ मिनिस्ट्री  तथा दिल्ली राज्य के प्रतिनिधि।

सर्वोच्च न्यायालय ने पलटा फैसला

11 दिसंबर, 2013 को इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला पलट दिया तथो दो वयस्कों के बीच सहमति से बने समलैंगिक रिश्ते को अपराध करार दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से समलैंगिक, उभयलिंगी और किन्नर समुदाय सहित सभी अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने वालों को बहुत बड़ा झटका लगा। दिल्ली उच्च न्यायालय के 2009 में दिए गए फैसले के विपरीत सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने कहा कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को बदलने के लिए कोई संवैंधानिक गुंजाइश नहीं है। इस धारा के तहत दो व्यस्कों के बीच समलैंगिक रिश्ता अपराध है और रहेगा। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने महाधिवक्ता से कहा कि अगर सरकार चाहे तो कानून में संशोधन करवा सकती है। न्यायालय ने धारा 377 पर मार्च 2012 में हुई सुनवाई को सुरक्षित रखा था और 21 महीने बाद यह फैसला आया।

गे एक्टविस्ट ने इसे काला दिन बताते हुए कहा कि ऐसा पहली बार हुआ है जब हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने बदला है। वहीं समलैंगिकों की आवाज उठाने वाली संस्था नाज फाउंडेशन ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डालने का फैसला लिया। गे राइट्स एक्टिविस्ट्स ने दिल्ली के पालिका बाजार में गे मार्च का आयोजन भी किया।

भारत सरकार भी हुई गंभीर 

सुप्रीम कोर्ट के इस तरह दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला पलट देने से भारत सरकार भी गंभीर हो गई और इस मामले को गैर आपराधिक बनाने पर विचार करना शुरू कर दिया। तत्कालीन कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने इस मामले को संसद में उठाने की बात कही, वहीं पूर्व कानून मंत्री अश्विनी कुमार ने भी कहा कि अब संसद में धारा 377 में बदलाव करना ही एकमात्र उपाय है। तत्कालीन सूचना और प्रसारर् िमंत्री मनीष तिवारी ने भी कहा कि जरूरत पड़ने पर संसद में इस पर चर्चा की जाएगी। कांग्रेस नेता मर्शििंकर अय्यर ने भी सभी नागरिकों को समान अधिकार मिलने की वकालत की। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कई दलों के नेता सहमत नहीं हुए। टीएमसी नेता डेरेक ओ ब्रायन के मुताबिक निजी तौर पर वे इस फैसले से निराश हुए। उनका कहना था कि जिस उदार दुनिया में हम रह रहे हैं उसमें इस तरह का फैसले की उम्मीद नहीं थी। वहीं जेडीयू नेता शिवानंद तिवारी के मुताबिक कई देशों में समलैंगिकता जायज है लिहाजा हमें इस पर आंखें बंद नहीं करनी चाहिए।

धार्मिक नेता हुए खुश

इस फैसले का धार्मिक संस्थाओं से जुड़े लोगों ने जी खोलकर स्वागत किया । वीएचपी नेता आचार्य धर्मेंद्र ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भारतीय संस्कृति के अनुकूल बताया। गोरखपुरधाम के प्रमुख और सांसद योगी आदित्यनाथ ने भी फैसले का स्वागत किया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य जफरयाब जिलानी ने इस फैसले को इस्लाम के अनुकूल करार देते हुए ऐतिहासिक कदम बताया  जबकी ईसाई धर्मगुरु फादर डोमिनिक इमैनुअल ने भी इस फैसले को सही बताया।

और फिर सरकार पहुंच गई सुप्रीम कोर्ट

इसके बाद भी जो हुआ, वह चौंकाने वाला था। कानून बनाने और उसमें बदलाव करने में सक्षम तत्कालीन केंद्र सरकार अप्राकृतिक यौनाचार को दंडनीय अपराध करार देने वाली आईपीसी की धारा 377 में खुद संशोधन करने की बजाय सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुंच गई। सरकार अच्छी तरह जानती थी कि अगर उसने खुद इस बारे में कानून बनाया या इसमें बदलाव किया तो भारतीय जनता का कड़ा विरोध झेलना होगा। अगर न किया तो अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने वाले नाराज होंगे। इसलिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करके आग्रह किया कि वह अपने फैसले पर पुनः विचार करे।

पुनर्विचार के लिए दिए 76 आधार

पुनर्विचार याचिका में सरकार ने 11 दिसंबर, 2013 के निरर््िय पर फिर से विचार करने के लिए 76 आधार दिए हैं। याचिका में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट का निरर््िय त्रुटिपूरर््ि ही नहीं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 14ए15 और 21 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों के बारे में दिए गए सिद्धांतों के खिलाफ है। 

गृह मंत्रालय ने पुनर्विचार याचिका में कहा कि एकांत में सहमति से समलैंगिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध करार देने वाली आईपीसी की धारा 377 का प्रावधान संविधान में दिए गए समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। याचिका में यह भी कहा गया कि प्राकृतिक व्यवस्था के खिलाफ संबंध बनाने को अपराध करार देने वाली धारा 377 ब्रिटिश काल के पुराने कानूनों के मुताबिक है जिसे भारत में 1860 में शामिल किया गया था। 

याचिका में यह तर्क भी दिया गया है कि शीर्षस्थ अदालत ने भी यह व्यवस्था दी है कि एक कानून जो लागू किए जाने के समय न्यायोचित था समय के साथ मनमाना और अनुचित हो सकता है। सरकार ने पुनर्विचार याचिका में यह दलील भी दी कि फैसले में दिए गए सर्वोच्च अदालत के तमाम निष्कर्ष इसी न्यायालय की ओर से दी गई तमाम व्यवस्थाओं के विपरीत हैं। सरकार ऐसे ही प्रत्येक निष्कर्ष पर सवाल उठा रही है जो पिछली व्यवस्थाओं के मद्देनजर त्रुटिपूरर््ि नजर आते हैं। 

याचिका में सर्वोच्च अदालत के फैसले को मध्ययुगीन और प्रतिगामी बताते हुए कहा गया है कि शीर्षस्थ अदालत ने सुनवाई के दौरान केंद्र की इस दलील पर विचार ही नहीं किया कि हाईकोर्ट के निरर््िय में किसी प्रकार की कानूनी खामी नहीं है। 

धारा 377 को खारिज करने की मांग

17 दिसंबर, 2013 के अंक में प्रकाशित अपने लेख में फौजिया रियाज नामक लेखिका ने मांग की कि धारा 377 को खत्म कर देना चाहिए। होमोसेक्सुअलिटी पर सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के बाद देशभर में इसको लेकर बहस छिड़ी हुई है। मामला सेक्सुअलिटी से जुड़ा हो तो लोगों की दिलचस्पी काफी बढ़ जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि धारा 377 में आपसी सहमति से बनाए जाने वाले समलैंगिक संबंध को भी जुर्म माना गया है। फिलहाल यह धारा वैलिड है, इसलिए यह जुर्म है। ऐसे में समलैंगिकता का समर्थन करने वालों की यह मांग तर्कसंगत लग सकती है कि इस धारा को ही खत्म कर दिया जाए। लेकिन इस मामले में भीड़ का तर्क अपनाने के बजाय हमें यह देखना चाहिए कि असल में इस धारा के प्रावधान क्या हैं।

नए कानून

यहां यह जान लेना भी हमारे लिए जरूरी है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के कई बिंदुओं को लेकर अलग से कानून बन चुके हैं। यह धारा कहती है कि अगर दो बालिग मर्जी से या मर्जी के बगैर अप्राकृतिक संबंध बनाते हैं तो उन्हें 10 साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है। यह अपराध संज्ञेय और गैर जमानती है। इस कानून के मुताबिक पशु के साथ भी ऐसा संबंध अप्राकृतिक ही माना जाएगा। अगर बच्चों के साथ ऐसी हरकत की जाती है तो वह भी अपराध होगा। स्पष्ट है कि कानूनन कोई भी समलैंगिक संबंध अपराध ही माना जाएगा।

मिलते-जुलते और कानून

0  एंटी रेप लॉ के बाद आईपीसी की धारा 375 के तहत रेप की परिभाषा में कहा गया है कि अगर किसी महिला के साथ उसकी मर्जी के बगैर यौनाचार या अप्राकृतिक दुराचार किया जाता है तो वह रेप होगा। यहां यौनाचार की परिभाषा में अप्राकृतिक शारीरिक संबंध, ओरल सेक्स और प्राइवेट पार्ट में कोई ऑब्जेक्ट डालने को भी शामिल करके इसे और ज्यादा व्यापक बना दिया गया है। यह कानून बनने के बाद धारा 377 के कई बिंदुओं का कोई औचित्य नहीं रह जाता।

0 18 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए बनाए गए पोक्सो (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन अगेंस्ट सेक्सुअल ऑफेंस एक्ट) कानून के तहत बच्चों को भी हर तरह के यौनाचार या अप्राकृतिक दुराचार से सुरक्षा दी गई है। इसमें दोषियों के लिए उम्रकैद तक का प्रावधान है। इस कानून को जेंडर न्यूट्रल रखा गया है, यानी यह 18 साल से कम उम्र की लड़की या लड़का, दोनों के मामले में समान रूप से लागू होगा। आमतौर पर जबरन अप्राकृतिक दुराचार के शिकार बच्चे ही होते रहे हंैं, लेकिन पोक्सो कानून के बाद बच्चों के मामले में आईपीसी की धारा 377 का कोई औचित्य नहीं रह गया है। इसके बाद धारा 377 के तहत सिर्फ दो मुद्दे बचते हैं।। एक, दो बालिगों के बीच सहमति से बनाए गए अप्राकृतिक यौन संबंध या एक बालिग पुरुष द्वारा दूसरे बालिग पुरुष के साथ जबरन बनाए गए अप्राकृतिक संबंध का मामला। और नंबर दो, पशुओं के साथ बनाए जाने वाले अप्राकृतिक संबंध का मामला।

कितने मामले हुए दर्ज

आंकड़ों की सच्चाई बुरी तरह से चौंकाती है। धारा 377 के तहत जो दो मुद्दे बचते हैं, उनके तहत अप्राकृतिक संबंध के मामलों में पिछले 150 साल में आज तक ज्यादा से ज्यादा 200 लोगों को दोषी करार दिया गया है। दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस एसएन ढींगड़ा बताते हैं कि उनके पूरे कार्यकाल में दो बालिगों के बीच मर्जी से, दो बालिग पुरुषों के बीच बिना मर्र्जी के, या फिर पशुओं से ऐसे संबंध बनाए जाने का एक भी मामला उन्होंने नहीं देखा। हां, महिलाओं या बच्चों के साथ इस तरह के अपराध जरूर दिखते हैं और इनके लिए आईपीसी और पोक्सो कानून के तहत अलग से प्रावधान किए जा चुके हैं। इसलिए धारा 377 अब अधिक प्रभावशाली नहीं रह गई है।

तो सवाल यह उठता है कि क्या धारा 377 को वाकई खत्म कर देना चाहिए? आपसी सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंधों को, समलैंगिक संबंधों को या फिर पशु मैथुन को वैद्य कर देना चाहिए?

पुलिस निरंकुश होगी?

उस समय यह विचार किया गया कि इस संबंध में अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने वाले लोग चाहे सहमत हों, लेकिन भारत की अधिकांश जनता सहमत नहीं है। अप्राकृतिक यौन संबंधों के पक्षधर जोर देकर कहते हैं धारा 377 एक ऐसा हथियार है, जो पुलिस को निरंकुश बना देगा। पुलिस किसी को भी फंसाने के लिए उस पर आरोप लड़ देगी कि वह अप्राकृतिक यौन संबंध बना रहा था। अगर दो लड़के या दो लड़कियां कहीं भी बैठी होंगी या जा रही होंगी तो पुलिस उन्हें समलैंगिक बता सकती है। उनका कहना है कि महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाले अप्राकृतिक दुराचार के लिए अलग से कानून ही बन चुका है। तो फिर बेकसूर नागरिकों को परेशान करने के लिए पुलिस को यह हथियार आखिर किसलिए दिया जा रहा है? वहीं दूसरी ओर अधिकांश भारतीयों का मत है कि अगर इस धारा को खत्म कर दिया जाएगा तो लोग जोर-जबरदस्ती से, ब्लैकमेल करके, दबाव डालकर या फिर लोभ-लालच देकर अप्राकृतिक यौन संबंध कायम करने लगेंगे और पीड़ित पक्ष दबाव में आकर पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं करवा सकेगा। इसी प्रकार मूक जानवर भी कोई प्रतिरोध नहीं जता सकेंगे। इस अनैतिक कार्य पर रोक लगाने का केवल एक ही उस वक्त माना गया कि धारा 377 को जारी रखा जाए।

हैरतअंगेज कानूनी विसंगतियां

इस प्रकार कहा जा सकता है कि वर्ष 2013 में हर तरह के अप्राकृतिक यौन संबंधों के लिए दस साल के कारावास से लेकर उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान किया गया। हमें यह भी जान लेना चाहिए कि दंड प्रक्रिया संहिता के चेप्टर-3 के सेक्शन 29 में न्यायालयों की शक्तियों का उल्लेख किया गया है और उसके अनुसार इतनी सजा केवल सेशन कोर्ट यानि सत्र न्यायालय ही दे सकता है। 

लेकिन बहुत बड़ी कानूनी विसंगति यह है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के मामलों की सुनवाई के लिए जो न्यायालय नियुक्त किया गया है, वह है प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट का, जो अधिकतम तीन वर्ष के कारावास व पांच हजार रुपए तक के जुर्माने की ही सजा दे सकता है। बहुत बड़ा सवाल यह उठता है कि प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट की अदालत को जब इतनी सजा देने की शक्ति ही नहीं दी गई तो ऐसे मामलों का ट्रायल ऐसी अदालतों में क्यों चलाया जा रहा है?

दिल्ली की सेशन कोर्ट हैरान 

उन दिनों दिल्ली की एक सत्र अदालत ने भी इस बात पर आश्चर्य जताया है कि अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने के अपराध के मामले में उम्र कैद तक की सजा हो सकती है और ऐसे में, इस तरह के एक मामले की सुनवाई एक मजिस्टीरियल अदालत में कैसे हो सकती है जो सिर्फ तीन वर्ष तक के कारावास की सजा ही सुना सकती है। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश मनोज जैन ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने के अपराध से जुड़े कानून में व्याप्त व दिलचस्प कानूनी विसंगतियों पर सवाल उठाये थे। वह नाबालिग के साथ अप्राकृतिक संबंधों के एक मामले में मजिस्टीरियल अदालत के फैसले की समीक्षा कर रहे थे। श्री जैन ने आश्चर्य जताते हुए कहा था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत दर्ज होने वाला मुकदमा मजिस्ट्रेट की अदालत में चलाया जाता है और किसी भी मजिस्ट्रेट को सिर्फ तीन वर्ष तक की सजा देने का ही अधिकार प्राप्त है। उन्होंने कहा था कि हालांकि, धारा 377 के तहत आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है। ऐसे में इस तरह का मुकदमा मैजिस्ट्रेट की अदालत में आखिर क्यों चलना चाहिए, जबकि अपराध की सजा के प्रावधान गंभीर हैं।

जस्टिस जैन ने दंडात्मक प्रावधानों का जिक्र करते हुए कहा था कि अप्राकृतिक किस्म के अपराधों से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 377 कहती है कि अगर कोई व्यक्ति किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ प्रकृति के विरूद्ध स्वेच्छा से यौन संबंध स्थापित करता है तो उसे उम्र कैद तक की सजा या अधिकतम 10 वर्ष का कारावास हो सकती है और उस पर अर्थदंड भी लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 57 के तहत उम्र कैद की सजा के मायने 20 वर्ष जेल में गुजारना है। 

अब हम खुद ही सोच सकते हैं कि भारतीय कानून में कितनी विसंगतियां हैं और इन्हीं विसंगतियों का लाभ अपराधी उठाते हैं। जिस अपराधी को उम्रकैद या दस वर्ष का कारावास होना चाहिए, उसे आमतौर पर मात्र तीन साल की ही सजा होती है। तीन वर्ष से अधिक सजा सुनाने का अधिकार एक प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट के पास नहीं है। हां अगर वह प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के पद पर है, तो वह सात वर्ष तक की सजा सुना सकता है। 

न्यायालयों की शक्तियों को आइए कुछ और स्पष्ट कर लेते हैं। 

0 माननीय सुप्रीम कोर्ट को बड़े से बड़ी सजा देने का अधिकार है। इस कोर्ट द्वारा सुनाई गई सजा को माफ करवाने के लिए या कम करवाने के लिए राष्ट्रपति को  दया याचिका दी जा सकती है।

0 उच्चतम न्यायालयों को भी बड़ी से बड़ी सजा देने का अधिकार है। लेकिन  अगर कोई ऐसे न्यायालयों की सजा से संतुष्ट नहीं है तो वह अपनी सजा को माफ करवाने या कम करवाने की अपील सुप्रीम कोर्ट में कर सकता है।

0 सेशन कोर्ट यानि सत्र न्यायालय में भी बड़ी से बड़ी सजा सुना सकता है, लेकिन अगर वह मौत की सजा सुनाता है तो वह तब तक लागू नहीं होगी, जब तक कि उच्चतम न्यायालय उसकी पुष्टि नहीं कर देता।

0 मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी की अदालत को सात वर्ष तक के कारावास की सजा सुनाने का अधिकार है। वह इससे अधिक कारावास, मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा नहीं सुना सकता। 

0 प्रथम श्रेणी न्यायिक दंडाधिकारी अधिकतम तीन वर्ष तक के कारावास तथा पांच हजार रुपए तक के आर्थिक दंड की सजा सुना सकता है।

0 द्वितीय श्रेणी न्यायिक दंडाधिकारी अधिकतम एक वर्ष के कारावास की तथा एक हजार रुपए अर्थ दंड की सजा सुना सकता है।

0  चीफ मैट्रोपोलिटन मैजिस्ट्रेट को को मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के समान शक्तियां दी गई हैं, वहीं मैट्रोपोलिटन मैजिस्ट्रेट को प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट के समान शक्तियां दी गई हैं।

यह सब पढ़ने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि अप्राकृतिक यौन संबंधों से जुड़े मामले की सुनवाई सेशन कोर्ट में होनी चाहिए, न कि प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट की अदालत में। 

धारा 377 हटाए जाने का क्या होगा असर?

इसके बाद जुलाई 2018 तक भारतीय दंड संहिता की धारा 377 पूरी तरह से पूरे देश में लागू रही। तथा उसके लिए दस वर्ष कारावास से लेकर उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान लागू किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कानून में संशोधन करने के लिए सरकार से कहकर गेंद उसके पाले में सरका दी, तो दूसरी ओर सरकार ने भी पुनर्विचार याचिका दायर करके गंेद को फिर से सुप्रीम कोर्ट के पाले में सरकाने की कोशिश की। लेकिन इस तरह गेंदें सरकाने का जल्द ही कोई परिणाम सामने नहीं आया। अप्राकृतिक यौन संबंधों के समर्थक सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से झल्ला रहे थे, वहीं दूसरी ओर निवर्तमान सरकार भी कुछ नहीं कर पा रही थी। फिर 2014 में नई सरकार का गठन भी हो गया। लगता नहीं था कि नई सरकार भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के  प्रारूप को बदलने के लिए कोई कदम उठाएगी? लग रहा था कि वह कानून कई वर्ष तक चलने वाला था और उसमें कोई बदलाव होने की संभावना नहीं लग रही थी।

सयाने लोगों की सोच

इस मुद्दे पर इस पुस्तक के लेखक ने समाज के कुछ सयाने लोगों की राय एकत्रित की और जानने की कोशिश की कि अप्राकृतिक यौन संबंधों को लेकर कैसा कानून बनना चाहिए? जो राय उन दिनों मिली, उसके अनुसार समाज के अधिकांश सयाने लोगों का मानना था कि न तो इस कानून को सरकार मनमाने तरीके से लोगों पर थोपे और न ही अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने की छूट दे।  मौजूदा कानून को लेकर संसद में जोरदार बहस करवानी चाहिए। और इसके बाद ऐसा कानून बनना चाहिए, जिसमें व्यक्तियों को यौन स्वतंत्रता तो मिले, लेकिन न तो अनैतिकता फैले और न ही विवाह संस्था का महत्व कम हो। उनका मानना था कि अगर अप्राकृतिक यौन संबंधों या समलैंगिकता को छूट मिल गई तो यह समाज के कई क्षेत्रों में यह संक्रामक बीमारी की तरह फैल सकती थी। इसके अलावा सीमांत के मोर्चोंें पर अकेले रहने वाले फौजी जवानों, निर्जन क्षेत्रों में नियुक्त सरकारी अफसरों, घरेलू नौकरों, नौकरानियों तथा युवा छात्रावासों में मुक्त-यौनाचार की शिकायतें तेजी से बढ़ने की आशंका थी।

इन सयाने लोगों का यह भी कहना था कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी जो फैसला दिया था, वह मुक्त यौनाचार की छूट नहीं देता था। उसकी भी पहली शर्त यह है थी कि परस्पर सहमति होनी चाहिए। जहां जोर-जबर्दस्ती हुई कि आप अदालत की शरर् िले सकते हंैं। यह प्रावधान सभी मातहतों को अपने मालिकों की ज्यादती के विरुद्ध सुरक्षित करता है। इसके अलावा अगर कोई परिवार के बाहर किसी से यौन-संबंध स्थापित करता है तो वह अपने आप कानून की गिरफ्त में आ जाता है। दूसरे शब्दों में समलैंगिक लोगों के प्रति सहानुभूति रखने वाला कानून परिवार नामक संस्था की पूरर््ि सुरक्षा और प्रतिष्ठा करता है। जहां तक समलैंगिक विवाहों से पैदा होने वाले प्रश्नों की बात है, उन पर संसद और अदालत को काफी गंभीरता और दूरदृष्टि से विचार करना होगा।  इन सयाने लोगों में से कुछ ने यह भी कहा कि यह जरूरी नहीं है कि समलैंगिक विवाह सिर्फ ‘अप्राकृतिक’ यौनाचार के लिए ही होते हैं। भारत और पश्चिमी देशों में ऐसे अनेक उदाहरर् िदेखने मेंें आए हैं कि दो पुरुषों या दो स्त्रियों के बीच ऐसा प्रगाढ़ और अटूट प्रेम होता है कि वह किसी पति-पत्नी के प्रेम से कम नहीं कहा जा सकता। वहां विवाह नामक संस्था भी अप्रासंगिक हो जाती है। क्या हम ऐसे सात्विक सहजीवन को भी अनैतिक और अवैधानिक घोषित करना उचित होगा? हमें ऐसे सहिष्र्ुि और उदार समाज की कल्पना करनी चाहिए, जहां मुट्ठीभर अपवाद भी निरापद होकर जी सकें? इन सयाने लोगों में शामिल कुछ डॉक्टरों का कहना था कि मेडीकल साइंस तो इस मामले में निरपेक्ष है। इसके बावजूद वे मानते हैं कि ऐसे यौन संबंध हैं तो अप्राकृतिक ही।

कुछ सयाने लोगों ने चैलेंज के साथ यह भी कहा कि इस मामले को लेकर देश भर में वोटिंग करवाकर देख लो, स्थिति आइने की तरह साफ हो जाएगी और उन लोगों को अच्छी तरह अपनी औकात पता चल जाएगा, जो अप्राकृतिक यौन संबंधों के पक्षधर हैं, जो लोग ऐसा कृत्य करते हैं, उन्हें मानसिक रूप से बीमार माना जाना चाहिए और उनके लिए कानून की नहीं, मनोचिकित्सक को दिखाने की जरुरत है। उनका मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है, वह भारत की जनता के हित में दिया है। 

कुछ सयाने लोगों ने यह भी कहा कि यह अमेरिका की गहरी साजिश है जो इंडिया में भी इस तरह का कानून लागू करवाना चाहता है, जिससे अप्राकृतिक यौन संबंधों को बढ़ावा मिले। कुछ धार्मिक लोगों से भी बात की गई तो उन्होंने बताया कि यह ईश्वर के आदेश के खिलाफ है। यौन संबंधों का सीधा सा अर्थ है सृष्टि को आगे बढ़ाना। इसके लिए प्राकृतिक यौन संबंधों की जरूरत है, न कि अप्राकृतिक की। जो लोग ऐसा कर्म करते हैं, वे ईश्वरीय व्यवस्था के खिलाफ बगावत करते हैं और उन्हें इसका दंड भुगतना पड़ता है। कुछ सयाने लेागों ने यह भी कहा कि अल्लाह ने मर्द और औरत को एक दूसरे का लिबास बनाया है, और एक दूसरे के सुकून का जरिया भी। अगर भारतीय दंड संहिता की धारा 377 कोे खत्म किया जाता है, तो निश्चित तौर पर समाज में अराजकता बढेगी और अच्छे संबंधों के टूटने का चलन बढेगा।

अन्य देशों में क्या है कानून

अब जरा एक सरसरी नजर में यह देखते हैं कि अन्य देशों में अप्राकृतिक यौन संबंधों या समलैंगिकता को लेकर क्या कानून हैं? 

दुनिया के लगभग 80 देशों में समलैंगिकता को बिल्कुल मान्यता नहीं है। तुर्की, सऊदी अरब और ईरान में यह पूर्णतया प्रतिबंधित है। दक्षिर् िअफ्रीका एकमात्र ऐसा देश है, जहां संवैधानिक रूप से लंैंगिक आधार पर भेदभाव की मनाही है। अमरीका के न्यूयॉर्क में वर्ष 1969 में स्टोनवाल पब में दंगे भड़के थे और इन घटनाओं को समलैंगिकों के अधिकारों के लिए संघर्ष की बुनियाद माना जाता है। समलैंगिक सेक्स को मान्यता देने वाला प्रथम देश डेनमार्क था। यहां 1989 में समलैंगिंक सबंधों को मान्यता दी गई थी। इसके बाद कई अन्य यूरोपीय देशों जैसे कि नार्वे, स्वीडन और आयरलैंड ने भी इसे मान्यता दी। 2001 में नीदरलैंड ने समलैंगिक युगल को नागरिक विवाह अधिकार देकर नई प्रथा शुरू की और कई यूरोपीय देशों ने उसका अनुसरर् िभी किया। कुल 16 देशों में समलैंगिक जोड़ों के संयोजन को मान्यता प्राप्त है। नीदरलैंड, बेल्जियम, स्पेन, कनाडा, दक्षिर् िअफ्रीका और नार्वे में समलैंगिक विवाह मान्य हैं। भारत जैसी दंड संहिता को मानने वाले सिंगापुर ने साफ किया है कि वह अपने यहां समलैंगिकता को अपराध की श्रेर्ीि से नहीं हटायेगा। यानि भारत की तरह ही अप्राकृतिक संबंध और समलैंगिकता उनके देश में अपराध बने रहेंगे।

आखिर कौन लोग धारा 377 के खिलाफ

वर्ष 2013 के बाद इस बात पर बहस और तेज होती चली गई कि भारत में अप्राकृतिक यौन संबंधों यानि भारतीय दंड सहिता की धारा 377 को खत्म करने की मांग आखिर कौन लोग कर रहे थे और क्यों कर रहे थे और इसके पीछे उनकी मंशा क्या थी?

इस बात को अच्छी तरह समझा जा रहा था कि महिलाओं और बच्चों से अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने वालों के खिलाफ अलग कानून बन चुके थे तो इसके बाद धारा 377 में बचा था उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई, जो अपनी मर्जी से अप्राकृतिक यौन संबंध बनाते रहे थे या फिर वे जो पशु मैथुन करते थे। अब गौर करने वाली बात यह थी कि जो लोग आपसी सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध बनाते थे, वे बंद कमरे में बनाते थे, जहां से उन्हें शायद ही ऐसा करता हुआ पकड़ा़ जा सकता था। इस धारा के खत्म हो जाने से वे लोग कोई सड़क पर आकर, पार्क में या किसी पब्लिक प्लेस पर आकर तो अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने से रहे। जहां तक पशु मैथुन की बात थी तो ये दो प्रकार से होते थे। एक तो लोग अपने पालतू जानवरों से मैथुन कर सकते थे या फिर दूसरा ग्रामीण क्षत्रों में लोग आवारा पशुओं से भी ऐसा कर सकते थे। लेकिन आमतौर पर न कोई इसकी शिकायत लेकर पुलिस के पास जाता था और न ही ऐसे मामलों में कोई कार्रवाई होती थी;

यानि सारांश यह था कि सहमति से अप्राकृतिक संबंध बनाने या पशु मैथुन के  जितने मामले साल भर में पुलिस तक पहुंचते थे, उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता था और जितने मामलों में कार्रवाई की जाती थी, उनकी संख्या तो नगण्य थी। इसलिए बहस का मुद्दा यह था कि फिर धारा 377 के खिलाफ इतना बड़ा हंगामा क्योें मचा हुआ था? इस धारा को खत्म करने के लिए आवाज बुलंद ज्यादातर किस प्रकार के लोग कर रहे थे और वे क्या चाहते थे? उन दिनों चर्चा ऐसे लोगों पर होती थी, 

0 जो पुरुष वेश्यावृति का कारोबार कर रहे थे या करना चाहते थे।

0 जो लोग समलैंगिक लोगों के क्लब चला रहे थे या चलाना चाहते थे।

0 जो अप्राकृतिक यौन संबंधों, बच्चों के साथ यौन संबंधों और पशुओं के साथ यौन संबंधों पर पोर्न फिल्में बना रहे थे या बनाना चाहते थे और उनका कारोबार करना चाहते थे।

0 माफिया के वे लोग जो भारत को सैक्स इंडस्ट्री बनाना चाहते थे।

0 जो लोग भारतीय संस्कृति और परंपराओं की धज्जियां उड़ा देना चाहते थे।

0 वे लोग जो भारत को बीमारियों का घर बना देना चाहते थे और कमजोर करना चाहते थे।

0 ऐसे लोग, जो इस तरह के प्रयास करके, भारत में हर तरह की वैश्यावृति को वैद्य करवाना चाहते थे।

बहुत पहले से चल रहे थे प्रयास 

नेशनल एड्स कंट्रोल सोसायटी जिसे संक्षेप में नाको कहते हैं, ने 1999 में ही सेक्स उद्योग का समर्थन अपनी सालाना रिपोर्ट ‘‘कंट्री सिनेरियो 1998.99’’ में कर दिया था। इस रिपोर्ट के पृष्ठ 67 पर एक शब्द आता है ‘सेक्स इंडस्ट्री’। हमें पता रहना चाहिए कि द्विपक्षीय एजेंसियां पहले से ही भारत सरकार की अनुमति से भारत में ‘सेक्स इंडस्ट्री’ की परियोजनाएं चला रही हैं और अधिकारी व एनजीओ ‘सेक्स वर्कर’ शब्द का इस्तेमाल बहुत पहले से करते आ रहे हैं। समलैंगिकों को यौन संबंध बनाने की इजाजत न देना मानवाधिकार का मुद्दा बनाने का प्रयास किया जा रहा था। इससे उन लोगों के मंसूबे साफ हो जाते थे, जो भारत में अप्राकृतिक यौन संबंधों का विभिन्न तरीकों से खुला व्यापार करना चाहते थे।

उन दिनों धारा 377 को खत्म करने या न करने का मामला सुप्रीम कोर्ट ने देश की संसद की तरफ सरका दिया था। भारत में वर्ष 2014 में नई सरकार बन चुकी थी। उस समय देशवासियों की नजर इस बात पर थी कि नई सरकार इस मामले को कैसे संभालने वाली थी।

वर्ष 2016 में क्या हुआ

वर्ष 2016 में एक बार फिर स्ळठज्फ (लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर, क्वियर) ऐक्टिविस्ट्स ने सुप्रीम कोर्ट में दावा किया कि धारा 377 से उनकी सेक्शुऐलिटी, सेक्शुअल एनॉटमी, सेक्शुअल पार्टनर चुनने की आजादी, जीवन, निजता, सम्मान और समानता के साथ ही संविधान के पार्ट प्प्प् के तहत दिए जाने वाले मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन किया जा रहा है। 

वर्ष 2017 में क्या हुआ

सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2017 में दिए एक फैसले में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बताया और साथ ही, सेक्शुअल ओरियंटेशन को निजता का अहम हिस्सा माना। इसी के साथ, सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने जुलाई 2018 में धारा 377 के खिलाफ दाखिल याचिकाओं को सुनना शुरू किया और एक ऐसे फैसले की ओर कदम बढ़ाए जो इतिहास बदलने वाला था। 

     6 सितंबर, 2018 को ऐतिहासिक फैसला

इसके बाद धारा 377 को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 6 सितंबर, 2018 को एक ऐतिहासिक फैसला दिया। कोर्ट ने जो फैसला दिया उससे न सिर्फ सदियों पुरानी सामाजिक बेड़ियों को झटका लगा बल्कि एक बड़े वर्ग को इस  तरह का प्यार करने की आजादी मिल गई। कोर्ट ने दो बालिगों के बीच आपसी सहमति से होने वाले समलैंगिक संबंधों को वैध करार दे दिया। इसी के साथ अंग्रेजों के समय से चले आ रहे है भारतीय दंड संहिता (प्च्ब्) की धारा 377  के उस प्रावधान को हटा दिया गया जिसके तहत एक ही जेंडर के दो लोगों को संबध बनाने की इजाजत नहीं थी। 

सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक संबंधों को वैध करार देते हुए कहा कि सेक्शुअल ओरियंटेशन प्राकृतिक होता है और लोगों का उसके ऊपर कोई नियंत्रर् िनहीं होता। हालांकि, कोर्ट ने नाबालिगों, जानवरों और बिना सहमति के बनाए गए संबंधों पर इस प्रावधान को लागू रखा है। फैसला देते हुए जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने यहां तक कहा कि समाज को स्ळठज्फ और उनके परिवारों से उन्हें इतने साल तक समान अधिकारों से वंचित रखने के लिए माफी मांगनी चाहिए। 

Copywrite ; J.K.Verma Writer

9996666769

jkverma777@gmail.com


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