Homosexuality and Unnatural Sex Relations-12 : अप्राकृतिक यौन संबंध या समलैंगिकता की शरीयत में सजा मौत

      संसार का कोई भी धर्म अप्राकृतिक यौन संबंधों या समलैंगिकता के पक्ष में नहीं है। हर धर्म दुराचार से हटकर सदाचार का पाठ पढ़ाता है। कोई भी धर्म ऐसा नहीं है, जो दुराचार का पक्षधर हो। हालांकि समलैंगिकता का जब भी जिक्र आता है, कुछ लोग खजुराहों की नग्न मूर्तियों या वात्स्यायन के कामसूत्र का हवाला देने लगते हैं और साबित करने की कोशिश करते हैं कि समलैंगिकता प्राचीन युग से भारतीय समाज में है। वे इसे भारतीय परंपराओं और संस्कृति का भी नाम देते हैं। जबकि सत्य यह हैं कि भारतीय संस्कृति का मूल संदेश वेदों में वरर््िित संयम विज्ञान पर आधारित शुद्ध आस्तिक विचारधारा हैं।

हम सभी जानते हैं कि भौतिकवाद अर्थ और काम पर ज्यादा बल देता हैं जबकि अध्यात्म धर्म और मुक्ति पर ज्यादा बल देता है। वैदिक जीवन में दोनों का समन्वय है। एक ओर वेदों में पवित्र धनार्जन करने का उपदेश है, दूसरी ओर उसे श्रेष्ठ कार्यों में दान देने का उपदेश हैं।  इसी तरह एक ओर वेद में भोग केवल और केवल संतान उत्पत्ति के लिए है।  दूसरी तरफ संयम से जीवन को पवित्र बनाये रखने की कामना है। वेद कहते हैं कि धर्म का मूल सदाचार हैं। सदाचार ही परम धर्म हैं। सदाचार की सीधी-साधी परिभाषा ही यही है कि जो दुराचार न हो। अप्राकृतिक यौन संबंध या समलैंगिकता दुराचार की श्रेणी में ही आती है। वेदों में स्पष्ट कहा गया है कि दुराचारी व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। अतः वेदों में सदाचार, पाप से बचने, चरित्र निर्मार् िव ब्रह्मचर्य आदि पर बहुत बल दिया गया है। आइए कुछ उदाहरण देखते हैं ः 

0 यजुर्वेद ४4ध्28 - हे ज्ञान स्वरूप प्रभु, मुझे दुश्चरित्र या पाप के आचरर् िसे सर्वथा दूर करो तथा मुझे पूरर््ि सदाचार में स्थिर करो।

0 ऋग्वेद 8ध्48ध्526 - वे मुझे चरित्र से भ्रष्ट न होने दें।

0 यजुर्वेद 3ध्45५- ग्राम, वन, सभा और वैयक्तिक इन्द्रिय व्यवहार में हमने जो पाप किए हैं उसको हम अपने से अब सर्वथा दूर कर देते हैं।

0 यजुर्वेद 10ध्15ध्16- दिन, रात्रि, जागृत और स्वप्न में हमारे अपराध और दुष्ट व्यसन से हमारे अध्यापक, आप्त विद्वान, धार्मिक उपदेशक और परमात्मा हमें बचाएं।

0 ऋग्वेद 10ध्5ध्6६- ऋषियों ने सात मर्यादाएं बनाई हैं। उनमे से जो एक को भी प्राप्त होता हैं, वह पापी है। चोरी, व्यभिचार, श्रेष्ठ जनों की हत्या, भ्रूर् िहत्या, सुरापान, दुष्ट कर्म को बार बार करना और पाप करने के बाद छिपाने के लिए झूठ बोलना।

0 अथर्ववेद ६6ध्45ध्1५- हे मेरे मन के पाप! मुझसे बुरी बातें क्यों करते हो? दूर हटो। मैं तुझे नहीं चाहता।

0 अथर्ववेद 11ध्5ध्10- ब्रह्मचर्य और तप से राजा राष्ट्र की विशेष रक्षा कर सकता है। दुराचारी राजा स्वयं भी नष्ट होता है तथा अपनी प्रजा को भी नष्ट करता है।

0 अथर्ववेद 11ध्5ध्19- देवताओं (श्रेष्ठ पुरुषों) ने ब्रह्मचर्य और तप से मृत्यु (दुःख) को नष्ट कर दिया है।

0 ऋग्वेद 7ध्21ध्5५- दुराचारी व्यक्ति कभी भी प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता।

इस प्रकार अनेक वेद मंत्रों में संयम और सदाचार का उपदेश हैं।

  मनु स्मृति में समलैंगिकता के लिए दंड एवं प्रायश्चित का विधान होना स्पष्ट रूप से यही दिखाता हैं कि हमारे प्राचीन समाज में समलैंगिकता किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं थी। कुछ कुतर्र्की यह भी तर्क देते हंैं कि मनु स्मृति में अत्यंत थोडा सा दंड हैं। ऐसे लोगों को यह देखना चाहिए कि मनुस्मृति में ब्रह्मचर्य व्रत का नाश करने वाले के लिए किस दंड का क्या विधान हैं, जरा यह भी देख लें।

  व्यभिचार से परे रहने का संदेश

वैदिक विवाह व्यवस्था के आदर्शों और मूलभूत सिद्धांतों के बारे में भी हमें ज्ञान होना चाहिए। चारों वेदों में वर-वधु को महान वचनों द्वारा व्यभिचार से परे पवित्र सम्बन्ध स्थापित करने का आदेश है।

ऋग्वेद के मंत्र के स्वामी दयानंद कृत भाष्य में वर वधु से कहता हैं ः हे स्त्री ! मैं सौभाग्य अर्थात गृहाश्रम में सुख के लिए तेरा हस्त ग्रहर् िकरता हूं और इस बात की प्रतिज्ञा करता हूं कि जो काम तुझको अप्रिय होगा उसको मैं कभी ना ेकरूंगा। ऐसे ही स्त्री भी पुरुष से कहती हैं कि जो कार्य आपको अप्रिय होगा वो मैं कभी न करूंगी और हम दोनों व्यभिचार आदि दोषरहित होके वृद्ध अवस्था पर्यन्त परस्पर आनंद के व्यवहार करेंगे। परमेश्वर और विद्वानों ने मुझको तेरे लिए और तुझको मेरे लिए दिया है। हम दोनों परस्पर प्रीती करेंगे तथा उद्योगी होकर घर का काम अच्छी तरह और मिथ्याभाषर् िसे बचकर सदा धर्म में ही लीन रहेंगे। सब जगत का उपकार करने के लिए सत्यविद्या का प्रचार करेंगे और धर्म से संतान को उत्पन्न करके उनको सुशिक्षित करेंगे। हम दूसरे स्त्री और दूसरे पुरुष से मन से भी व्यभिचार न करेंगे।

धर्म गुरू कहते है

0 ‘केरल कैथोलिक बिशप कांफ्रेंस’ (केसीबीसी) ने कहा है कि वह समलैंगिकता के पूरी तरह खिलाफ है। देश में जब भी समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दिलाए जाने की मांग उठी, तो हम उसका पुरजोर विरोध करेंगे।

0 केसीबीसी के प्रवक्ता फादर स्टेफन अलाथारा का कहना है कि समलैंगिकता भारतीय संस्कृति के खिलाफ है। हम इसे कानूनी तौर पर मान्यता दिए जाने का हमेशा सख्त विरोध करेंगे।

0 सुन्नी धर्मगुरु मौलाना खालिद रशीद फिरंग महली का कहना है कि समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देना सर्वथा अनुचित है। यह समाज के लिए बहुत घातक और नुकसानदेह है। कोई भी धर्म समलैंगिकता को स्वीकार नहीं करता। इसे मान्यता देने से पूरी युवा पीढ़ी गर्त में चली जाएगी।

0 शिया धर्मगुरु कल्बे जव्वाद ने कहा है कि समलैंगिकता हमारे देश की संस्कृति के खिलाफ है। इसके लिए हमारे समाज में कोई गुंजाइश नहीं है। समलैंगिकता एक मानसिक विकृति है और इसे वैधानिक करने का मतलब है कि इस विकृति को आगे बढ़ाना।

0 दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले पर हिंदू संगठनों ने भी आपत्ति जताई है। उल्लेखनीय है कि धारा 377 के तहत देश में समलैंगिकता और अप्राकृतिक यौन संबंध को अपराध माना जाता है। यह कानून भारत में ब्रिटिश शासनकाल के दौरान बनाया गया था।

भाजपा के एक बड़े नेता मुरली मनोहर जोशी का मानना है कि न्यायपालिका से बड़ी संसद है अर्थात संसद न्यायपालिका से उपर है। सिर्फ एक या दो न्यायाधीश (शायेद वह समलंैंगिक ही हों) सब कुछ तय नहीं कर सकते। भारतीय संस्कृति समलैंगिकता के विरोध में है तो इसमें संसद को भी जनभावनाओं का आदर करते हुए ही कोई कानून बनाना चाहिए।

0 बाबा रामदेव का कहना है कि अगर समलैंगिकता को कानूनी जामा पहनाया गया तो कुल ही नष्ट हो जाएंगे। सरकार को इस मामले में पूरी तरह से जागरूक रहना होगा।

इस्लाम में हराम है

समलैंगिकता इस्लाम धर्म में हराम है।  कुरान में जिक्र है कि एक जमाने में हजरत लूत की एक कौम थी, और वे लोग आपस में एक ही लिंग के प्रति आकर्षित थे। अल्लाह के आदेश पर हजरत लूत ने अपनी कौम को समझाया और उन्हें यह शिक्षा देने की कोशिश की कि यह अप्राकृतिक है और अल्लाह के नजदीक खतरनाक गुनाह है, जिसका अंजाम भयानक होगा। लेकिन उनकी कौम ने नहीं माना और अल्लाह ने उन पर पत्थरों की बारिश करके पूरी की पूरी कौम को खत्म कर दिया. (इस तरह से देह व्यापार या अप्राकृतिक यौन संबंधों को वैध ठहराने वाले यह सबक ले सकते हैं कि एड्स जैसी लाइलाज खतरनाक बीमारी के रूप में ईश्वर इंसान के सामने अपनी निशानियां भेज देता है)

धर्म गुरु मानते हैं कि ईश्वर के आदेश के विरुद्ध जाने-पर तो इंसानी नस्ल ही खत्म हो जायगी। लोग मुसीबत में गिरफ्तार हो जाएंगे। इस फैसले पर विचार करने की जरूरत है। ईश्वर ने इंसान को जिस मकसद के लिए पैदा किया है उसके खिलाफ यह खुली बगावत है अर्थात ईश्वर के कानून के खिलाफ बगावत। चंद लोग जो कोर्ट में ईश्वर के कानून को चुनौती दे रहे हैं, एक न एक दिन बड़ी मुसीबत में गिरफ्तार होंगे। 

आइए कुरान के कुछ अंश देखते हैं

0 क्या तुम संसार वालों में से पुरुषों के पास जाते हो और तुम्हारी पत्नियों में तुम्हारे रब ने तुम्हारे लिए जो कुछ बनाया है उसे छोड़ देते हो । तुम लोग तो सीमा से आगे बढ़ गये हो। (कुरआन, 26 ध्165.166द्ध

0 क्या तुम आंखों देखते अश्लील कर्म करते हो? तुम्हारा यही चलन है कि स्त्रियों को छोड़कर पुरुषों के पास काम वासना की पूर्ति के लिए जाते हो? वास्तविकता यह है कि तुम लोग घोर अज्ञानता का कर्म करते हो । (कुरआन, 27ध्54.55)

0 क्या तुम ऐसे निर्लज्ज हो गए हो कि वह प्रत्यक्ष अश्लील कर्म करते हो जिसे दुनिया में तुमसे पहले किसी ने नहीं किया? तुम स्त्रियों को छोड़कर मर्दों से कामेच्छा पूरी करते हो, वास्तव में तुम नितांत मर्यादाहीन लोग हो।  (कुरआन, 7ध्80.81)

0 वह अल्लाह ही है, जिसने तुम्हें एक जान से पैदा किया और उसी की जाति से उसका जोड़ा पैदा किया ताकि उसकी ओर प्रवृत होकर शान्ति और चैन प्राप्त करे।’’ (कुरआन, 7ध्186)

0 तुम तो वह अश्लील कर्म करते हो जो तुम से पहले दुनिया वालों में से किसी ने नहीं किया। तुम्हारा हाल यह है कि तुम मर्दों के पास जाते हो और बटमारी करते हो। अर्थात प्रकृति के मार्ग को छोड़ रहो हो। (कुरआन, 29ध्28.29)

0 और यह भी उसकी निशानियों में से है कि उसने तुम्हारी ही सहजाति से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए ताकि तुम उनके पास शान्ति प्राप्त करो और उसने तुम्हारे बीच प्रेम और दयालुता पैदा की। निश्चय ही इसमें बहुत-सी निशानियां हैं उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करते हैं। (कुरआन, 30ध्31)

इसके अलावा अल्लाह के रसूल ने भी समलैंगिकता को एक अनैतिक और आपराधिक कार्य बताते हुए इससे बचने के आदेश दिये हंैं। अल्लाह के रसूल ने कहा है ः

0 एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के गुप्तांग नहीं देखने चाहिएं और एक महिला को दूसरी महिला के गुप्तांग नहीं देखने चाहिएं। किसी व्यक्ति को बिना वस्त्र के दूसरे व्यक्ति के साथ एक चादर में या बिस्तर में नहीं लेटना चाहिए और इस प्रकार एक महिला को बिना वस्त्र के दूसरी महिला के साथ एक चादर या बिस्तर में नहीं लेटना चाहिए। (अबू दाऊद)

0 अल्लाह के रसूल ने कहा कि उस पर अल्लाह की लानत हो जो वह काम करे जो हजरत लूत की कौम किया करती थी, अर्र्थात समलैंगिकता (हदीस. इब्ने हिब्बान) दूसरे स्थान पर आप ने फरमाया कि समलैंगिकता में लिप्त दोनों पक्षों को जान से मार दो। (तिरमिजी) यह आदेश सरकार के लिए है किसी व्यक्ति के लिए नहीं । इसके अलावा समलैंगिकता में लिप्त महिलाओं के बारे में अल्लाह के रसूल का कथन है कि यह औरतों का जिना (बलात्कार) है । (तबरानी)

इस्लामी शरीयत में सजा मौत

इस्लामी शरीअत में समलैंगिकता को एक ऐसा अपराध माना गया है, जिसकी सजा मौत है, यदि यह लिवात (दो पुरुषों के बीच समलिंगी संबंध) हो । सिहाक (दो महिलाओं के बीच समलिंगी संबंध) को चूंकि जिना (बलात्कार) माना गया है, इसलिए इसकी सजा वही है, जो जिना की है अर्थात इसमें लिप्त महिला यदि विवाहित है तो उसे मौत की सजा दी जाए और यदि अविवाहित है तो उसे कोड़े लगाए जाएं। ये सजाएं व्यक्ति के लिए हैं यानी व्यक्तिगत रूप से जब कोई इस अपराध में लिप्त पाया जाए, लेकिन यदि संपूरर््ि समाज इस कुकृत्य में लिप्त हो तो उसकी सजा खुद कुरआन ने निर्धारित कर दी हैकृ।

0 और लूत को हमने पैगम्बर बनाकर भेजा, फिर याद करो जब उसने अपनी कौम से क्या कहा? क्या तुम ऐसे निर्लज्ज हो गये हो...तुम स्त्रियों को छोड़ कर पुरुषों से काम वासना पूरी करते हो। वास्तव में तुम नितांत मर्यादाहीन लोग हो। किन्तु उसकी कौम का उत्तर इसके सिवा कुछ नहीं था कि निकालो इन लोगों को अपनी बस्तियों से, ये बड़े पवित्रचारी बनते हैं। अंततः हमने लूत और उसके घर वालों को (और उसके साथ ईमान लाने वालों को) सिवाय उसकी पत्नी के जो पीछे रह जाने वालों में थी, बचाकर निकाल दिया और उस कौम पर बरसायी (पत्थरों की) एक वर्षा। फिर देखो उन अपराधियों का क्या परिर्ािम हुआ ।’’ (कुरआन, 7ध्80.84)।

हजरत लूत (अलैहिस्सलाम) की कौम पर अजाब की इस घटना को कुरआन दो अन्य स्थानों पर इस शब्दों में प्रस्तुत करता है ः 

0 फिर जब हमारा आदेश आ पहुंचा तो हमने उसको (बस्ती को) तलपट कर दिया और उस पर कंकरीले पत्थर ताबड़-तोड़ बरसाए। (कुरआन, 11ध्82)

0 अंततः पौ फटते-फटते एक भयंकर आवाज ने उन्हें आ लिया और हमने उस बस्ती को तलपट कर दिया और उस पर कंकरीले पत्थर बरसाए।’’ 

(कुरआन, 15ध्73.74)।

कुरआन ने जिस प्रकार लूत की कौम की घटना प्रस्तुत की है उससे भी स्पष्ट होता है कि यह न तो शारीरिक दोष है और न मानसिक रोग, क्योंकि शारीरिक दोष या मानसिक रोग का एक-दो लोग शिकार हो सकते हैं, एक साथ सारी की सारी कौम नहीं। यह भी कि ईश्वर अपने दूत लोगों के शारीरिक या मानसिक रोगों के उपचार के लिए नहीं भेजता और न ही उपदेश या मार्गदर्शन देने या अपने अच्छे आचरर् िका व्यावहारिक नमूना प्रस्तुत करने से ऐसे रोग दूर हो सकते हैं। यह मात्र एक दुराचार है, जिस प्रकार नशे की लत, गाली-गलौज, और झगड़े-लड़ाई की प्रवृत्ति और अन्य दुराचार। इस्लाम समलैंगिकता को एक अक्षम्य अपराध मानते हुए समाज में इसके लिए कोई स्थान नहीं छोड़ता है। और यदि समाज में यह अपना कोई स्थान बनाने लगे तो उसे रोकने के लिए या अगर कोई स्थान बना ले तो उसके उन्मूलन के लिए पूरी निष्ठा और गंभीरता के साथ आवश्यक और कड़े कदम भी उठाता है।

समलैंगिकता के उदाहरण नहीं मिलते

अगर हिंदुओं के धािर्मक गं्रथ उठाकर देखे जाएं तो उनमें से कईयों में कुंआरे मातृत्व के उद्धरर् ितो मिल जाते हैं, पर समलैंगिकता के उदाहरर् िनहीं मिलते।

पुरुष-पुरुष के संबंधों का उल्लेख मध्य युग या प्राचीन काल में नहीं मिलता है। लेकिन रसाभास का अंकन हमारे मंदिरों में काफी पहले हुआ है। पशुओं के साथ ऐसा अंकन मूर्तियों और चित्रों में है। सैनिक छावनियों में, सैनिकों के साथ यह स्थिति बनी रही है। इसके लिए हमें जीवन के उन अंशों को भी तलाश करना होगा, जहां स्त्री की उपलब्धता नहीं है। वहां पुरुष संबंधों की स्थिति मिलेगी। इसके उदाहरण कथकली, भरतनाट्îम व ओडिसी जैसी नृत्य विधाओं में देखे जा सकते हैं। इसमें भी ख्याल-नौटंकी की भांति एपिक्स हैं जो लम्बे समय तक प्रदर्शित किए जाते हैं। महिलाएं इसमें वर्जित हैं। क्योंकि रजस्राव के दौरान महिलाएं मंदिर में नहीं जाएंगी। ऐसे में महिला कलाकार हों तो प्रदर्शन कभी एक महिला के कारर्,ि कभी दूसरी-तीसरी महिला के कारर् िरूक जाएगा या प्रभावित होगा ही। अतः इन सब विधाओं में महिलाओं की वर्जना रही। सैनिक छावनी और सीमा पर तैनात फौजियों में भी महिलाएं वर्जित रहीं। धर्म के रहनुमाओं के मामले सुने जाते हैं। उपनिषद में सत्यकाम की कथा भी बिलकुल ऐसी ही है। इस कथा के अनुसार ः

जाबाली दासी के बच्चा हो गया। शिक्षा के लिए गुरुकुल में प्रवेश के लिए जब यह बच्चा गया तो आचार्य ने पूछा पिता का नाम बताओ। वह मां के पास गया। जाबाली ने पुत्र से कहा कि गुरुजी से कह दो कि मैं दासी हूं, अनेक घरों में विचरर् िकरती थी। मुझे मालूम नहीं कि तुम्हारा पिता कौन है। तुम यह कहो कि मेरी माता का नाम जाबाली है तो मैं जाबाल हूं। बच्चे ने गुरुजी के पास जाकर यही कहा, तो गुरुजी ने सुन कर ये व्यवस्था कर दी कि जो मां इतना सच बच्चे के साथ बोल सकती है और जो बच्चा इतनी सच बात बोल सकता है तो यह बच्चा ब्राह्मर् िका ही हो सकता है। ये सत्य की बात कह रहा है इसलिए इसका नाम अब सत्यकाम है। अतः सत्यकाम जाबाल उसका नाम रखा और गुरुकुल में प्रवेश दिया।

ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख तो हमारे हिंदू ग्रंथों में मिलता है, लेकिन समलैंगिकता के उदाहरर् िनहीं मिलते। कुंआरे मातृत्व के उद्धरर् िभी मिलते हंैं। जैसे कुंती कुंआरी थी लेकिन करर््ि को जन्म दिया। फिर पांच पुत्रों का भी जन्म हुआ। समलैंगिकता के पक्षधर ये सवाल करते हैं कि इससे संस्कृति का हास कैसे होगा? उनके जवाब के लिए रसाभास ही उदाहरर् िबनेगा। पिछले दो हजार वर्षोंे के उपलब्ध चित्रों में चीन एवं जापान के चित्रों में इस प्रकार का अंकन परवर्ती काल का भले ही मिल जाए, लेकिन हमारे यहां (परवर्ती समय को छोड़कर) समलैंगिकता को दर्शाते चित्र नहीं हैं।

हमारे धार्मिक चिंतक मानते हैं कि समलैंगिक प्रवृत्ति के दो कारण तो हो सकते हैं ः या तो विपरीतलिंगी उपलब्ध न हो अथवा समाज की तरफ से विपरीतलिंगियों से संसर्र्ग पर प्रतिबंध हो। जो ठीक रास्ता है, उससे जब व्यक्ति संसर्ग कर ही न पाए तो फिर कोई कृत्रिम रास्ता अपनाता है। लेकिन अगर विपरीत लिंगी मौजूद भी है और संसर्ग की भी आज्ञा है तो फिर समलैंगिकता या अप्राकृतिक यौन संबंधों का रास्ता क्यों अपनाया जाए?

आज संघ परिवार, दक्षिर्पिंथी संगठन और दूसरे धार्मिक संगठन (चर्च, मुस्लिम संगठन, आदि), ये सभी समलैंगिकता के मुद्दे पर एकमत हो इसका विरोध कर रहे हैं। दक्षिर्पिंथी संगठनों के लिए तो यौनिकता पर चर्चा करना ही ‘भारतीय’ संस्कृति के खिलाफ है। धर्म-संस्कृति के ‘रक्षक’ यह कभी नहीं चाहेंगे कि यौन विषयों पर लोग अपने मनमुताबिक फैसलें करें। गीताप्रेस, गोरखपुर की किताबें यह उपदेश देती हंै कि कैसे यौन संबंध की उपयोगिता केवल बच्चे पैदा करने तक ही सीमित है, इसका उपयोग आनंद पाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। 

हर क्रिया का एक अदृश्य कारर् िहोता है। हर क्रिया किसी कारर् िका प्रतिबिंब है। हमारी नजरें उस कारर् िको नहीं देख पाती हैं। हम अपने माता-पिता के अंश हैं। हमारे बीज की उत्पत्ति तरल रूप में दो लोगों के मिलन से संभव हुई थी जो समलैंगिक मिलन से संभव नहीं था। हमें इस बीज के अवयव के बारे में कुछ ज्ञात नहीं है। इसमें हमारे पूर्वजों की सात पीढियों के गुर् िसमाहित रहते हैं, माता और पिता दोनों की ओर से। क्या हम इस द्रव्य के मूल्य को समझ सकेंगे? क्या हम समझ सकते हैं कि प्रजनन के अलावा इस द्रव्य की जीवन में क्या भूमिका हो सकती है? धार्मिक गुरु कहते हैं कि यह द्रव्य तो जीवन का पर्याय ही है और इसकी एक भी बूंद बर्बाद नहीं की जा सकती है। इसमें सात-सात पीढियों के गुर्ोिं का खजाना मौजूद है। इसका इस्तेमाल तभी किया जाना चाहिए, जब धरती पर आठवीं पीढ़ी को लाना है। समलैंगिक रिश्तों या पशुगमन से जहां नवजीवन की उत्पत्ति नहीं होती, वहां इस द्रव की बर्बादी से चौदह पीढियों का आशीर्वाद बेकार चला जाता है।

धार्मिक गुरु यह भी कहते हैं कि समलैंगिक रिश्तों की नींव, विपरीत तत्वों के बीच आकर्षर् िके सिद्धांत पर नहीं टिकी होती है। इसमें निहित दैहिक सुख यंत्रवत रहता है न कि भावनात्मक या आध्यात्मिक। यह बंधन दीर्घकालिक न होकर कुछ समय तक ही रहता है। कुछ मनोचिकित्सकों ने भी इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि ये काम-विकृत मानसिकता है। जीवन को इस दिशा में धकेलने में कुछ भी प्रकृति के अनुरूप नहीं है।

हमें सिखाया गया है कि पुरूष और नारी, दोनों ही अद्र्ध-नारी और अद्र्ध-पुरूष हैं। पुरूषों में पुरूषोचित गुर्ोिं के साथ स्त्रैर् िगुर् िभी होते हैं। इसी तरह महिलाओं में, पौरूष गुर् िभी रहते हैं। लेकिन समलंैंगिक रिश्ते में जब दो पुरूष साथ रहते हैं तो अद्र्ध नारी का हिस्सा समाप्त हो जाता है। इसी तरह महिलाओं के बीच संबंध में अद्र्ध-पुरूष का हिस्सा समाप्त हो जाता है। प्रकृति ने हमें अपूरर्र््ि बनाया है, लेकिन इस तरह के संबंध से हममें पशु प्रवृति बढ़ जाती है। वैसे, पशु भी प्रकृति के नियम के विरूद्ध नहीं जाते हंैं, हम उनसे भी बदतर बन जाते हैं। हम अपनी इच्छाओं और इंद्रियों पर नियंत्रर् िखो देते हैं ।

इस तरह के संबंध में किसी तरह का आध्यात्मिक पक्ष नहीं रहता। ये पूरर्र््ि रूप से काम इच्छा की संतुष्टि के लिये है। इससे नई रचना सम्भव नहीं। दाम्पत्य में जिस निर्मल पे्रम की अनुभूति स्पर्श-आलिंगन आदि व्यवहार में होती हैं वैसी आन्तरिक प्रसन्नता समान तरह के व्यक्ति से अनुभूत नहीं हो सकती। प्रेम रस का कोई भी साहित्य पढ़ लो, वह दैहिक सुख की बजाय भावनाओं पर आधारित है। यहां तक कि पशुओं में भी यही बात देखी गई है। सिर्फ शारीरिक समागम होने पर, उसमें किसी तरह के लगाव की कोमल भावनाएं नहीं जुड़ी रहती हैं। महज कामुक अनुभूति रहती है जिसमें नवसृजन की अपेक्षा भी नहीं होती। परिर्ािमस्वरूप हमारा वर्ताव पशुओं जैसा होता है। ऐसे संबंधों में आत्माओं का मिलन नहीं होता है ।

रसाभास को भी समझिए

प्राचीन काल के हमारे साहित्य में एक शब्द है- रसाभास यानि मिथ्या सुख की अनुभूति। एक ऐसे संवेदनहीन सुख की अनुभूति जिसमें गुदगुदाती मीठी भावनाओं का अभाव रहता है। सभी इन्द्रियबोध भ्रामक और क्षर्किि होते हैं। ना इसमें पिछली क्रिया के लिए कोई संवेदना होती है और न ही भविष्य के प्रति आकांक्षा। प्राकृतिक रस सिर्फ स्त्री-पुरूष के संसर्ग में बहता है। रसाभास के कई उदाहरर् िहैं।

0 किसी और के जीवन साथी के साथ शारीरिक संबंध।

0 दोनों की सहमति की बजाय सिर्फ एक साथी की रूचि होने पर, फिर भले ही दोनों इस क्रिया में शामिल हो जाएं।

0 पशुगमन या पति-पत्नी के अलावा किसी अन्य की ओर आकर्षर्।ि

0 भय या आक्रामक दबाव में संसर्ग।

0 वेश्या गमन या आदतन व्यभिचारी में।

रसाभास में प्रेम की अभिव्यक्ति, रति-क्रीड़ा जैसे प्रेम के आभूषर् िनहीं होते हैं। इसमें न बदलती ऋतुओं का साथ होता है, न साथ बैठकर सूर्योदय का इंतजार और न ही ढलते सूरज को विदा किया जाता है। जल-क्रीड़ा, वन के शांत वातावरर् िमें साथ टहलना, इत्र-सुगंधी, आकर्षक वस्त्रों के जरिये रिझाने जैसी कोई बात नहीं रहती है। फिर मानवोचित क्या है? प्रत्येक क्रिया के पीछे कोई इच्छा रहती है। कुछ पाने की, कुछ हासिल करने की। लेकिन यही एक क्रिया है जो हम साथ करना तो चाहते हैं लेकिन उसका परिर्ािम नहीं चाहते, भले ही इसमें अलग अलग मंजिल के स्त्री-पुरूष साथ शामिल हों। ऐसे में क्रिया के दौरान पर-पुरूष या पर-नारी के विचार मन में आते हैं।

धार्मिक गुरु कहते हैं कि प्राचीन भारतीय संस्कृति, हिन्दू शास्त्रों में जीवन के अंतिम दिनों में पुरूषार्थ के माध्यम से भक्ति, त्याग और तपस्या करने की बात कही गई है। ये तभी संभव है जब हम एक नारी की तरह ईश्वर से अनुराग करें। इस ब्रह्माण्ड में सिर्फ ईश्वर ही पुरूष है और पूरर््ि समर्पर् िके लिये हमें नारी रूप धारर् िकरना ही होगा। लेकिन समलैंगिक संबंध में न प्रेम है, न ह्नदय है, न आस्था है और न ही मोक्ष है। सात पीढियों के तत्वों की बर्बादी से जीवन में सुख को ग्रहर् िलग जाता है। अगले जन्म में भी ये हमारा पीछा नहीं छोड़ता है और हम समलैंगिक चक्र में फंस जाते हैं क्योंकि ये प्रकृति के किसी अन्य जीव में देखा नहीं गया है। इससे किसी जन्म में मुक्ति नहीं है और न ही वर्तमान में किसी तरह की सामाजिक छवि।

एक लॉजिक यह भी 

कुछ धर्म गुरु यह भी लॉजिक देते हैं कि यदि स्त्री या पुरुष को सही दिशा में प्रेम नहीं मिलता है तो वे प्रेम के गलत रास्ते खोज लेते हैं। फिर जब गलत रास्तों पर चलने की आदत हो जाती है तो उन्हें सही रास्ते पसंद नहीं आते। इस बारे में ओशोे कहते हैं कि पुरुष या स्त्रियों को एक-दूसरे से प्रेम नहीं मिलता है तो वे संभोग को ही प्रेम समझ लेते हैं। यह भी एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जो पत्नियां अपने पति से प्रेम नहीं करतीं तो उनका पति संभोग के प्रति ज्यादा उत्सुक रहता है, खासकर दूसरी स्त्रियों से। ठीक इसके विपरित भी होता है।

दूसरी ओर ओशो यह भी कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति बाइ-सेक्सुअल है। देखना यह होगा कि किसमें किस तत्व की प्रथानता है। यदि किसी पुरुष में 60 प्रतिशत या इससे ज्यादा स्त्रैर् िमन है तो फिर उसके पुरुष होने का कोई महत्व नहीं। यही बात स्त्रियों पर भी लागू होती है। ओशो कहते हैं कि ऐसा कोई भी पुरुष खोजना संभव नहीं है, जो सौ प्रतिशत पुरुष हो और ऐसी कोई स्त्री खोजना संभव नहीं है, जो सौ प्रतिशत स्त्री हो।

बेवफाई का मनोविज्ञान

कुछ धर्म गुरु समलैंगिकता से बेवफाई का मनोविज्ञान भी जोड़ते हैं। उनका कहना है कि मां बनने के बाद स्त्रियों का पूरा ध्यान बच्चे पर चला जाता है। ऐसे में पुरुष को लगता है कि उनकी पत्नी अब उनसे प्रेम नहीं करती तब ऐसे में पुरुष दूसरी स्त्री से प्रेम की चाहत करने लगता है। हो सकता है कि वह कोई पुरुष ढूंढ ले और उससे समलैंगिक संबंध बना ले।

इन धर्म गुरुओं के इस विचार की पुष्टि वैज्ञानिक भी करते हैं। उनका कहना है कि 28 से 37 वर्ष की उम्र के बीच स्त्रियों में सेक्स के प्रति गहरा आकर्षर् िजागृत होता है। ऐसे में यदि पति उसकी कामेच्छा की पूर्ति नहीं कर पाता है तो स्त्रियाँ दूसरा साथी ढूंढ लेती हैं। लोकलाज के कारर् ियदि वे पुरुष साथी नहीं ढूंढ पाती हंैं तो अपने जैसी ही कोई स्त्री तलाश कर लेती हैं।

अनेक धर्मगुरुओं ने तो बाकायदा समलैंगिकता के कारण भी तलाश करने का प्रयास किया है। उन्होंने बाकायदा ऐसे रिश्तों पर शोध तक किया है।  इतना ही नहीं, बाद में मनोचिकित्सक भी उनके इस शोध से सहमत हुए हैं। आइए, देखते हैं कि ये किस तरह के शोध हैं ः 

समलैंगिक पुरुष  

1. ऐसे पुरुष जो बचपन से ही महिलाओं के साथ ही रहे हैं और जिन्हें मां ने ही पाल-पोसकर बड़ा किया है। इससे धीरे-धीरे उनकी मानसिक संरचना बदलकर ज्यादातर स्त्रेर् िहो जाती है।

2. समलैंगिकता का कारर् िपुरुषों के सेक्स हार्मोन में परिवर्तन का होना है।

3. पत्नी द्वारा पति की उपेक्षा की जाना।

4. बचपन की गलतियां आदतों में बदल जाती हैं।

5. दो दोस्तों का इस कदर जुड़ जाना कि अलग होने का मन न करे।

समलैंगिक स्त्री 

1ण् बचपन से ही उसकी शिक्षा-दीक्षा पुरुषों की तरह दी जाती है जैसे कि उसे बेटी की जगह बेटा कहकर पुकारना। लड़कियों की अपेक्षा लड़के के साथ रहना आदि से स्त्रेर् िचित्त बदलकर पुरुषों-सा चित्त होने लगता है।

2. सेक्स हार्मोन में परिवर्तन का होना भी एक कारर् िहै।

3. पति द्वारा इच्छाओं की पूर्ति न कर पाना।

4. बचपन की गलतियां आदतों में बदल जाती हैं।

5. दो सहेलियों का इस कदर जुड़ जाना कि अलग होने का मन न करे।

धर्मगुरुओं का मानना है कि एक सभ्य समाज के समक्ष समलैंगिकों के समाज विकसित होना कितना उचित या अनुचित है इस पर विचार किया जाना चाहिए। जब हम अपने आसपास कोई गंदगी देखते हैं तो नाक पर रूमाल रख लेते हैं, लेकिन यदि इसी तरह सरकारें या न्यायालय बदबू को मान्यता देती रहीं तो नाक अच्छी और बुरी चीजों में फर्क करना छोड़ देगी।

    एक रोग है और उपचार भी

संसार के अधिकांश अध्यात्म गुरुओं का मानना है कि समलैंगिकता एक रोग है और इस रोग का अध्यात्म से भी उपचार संभव है। समाज में फैल रहे इस भयानक रोग को रोकने के लिए हर तरह के उपाय किए जाने चाहिएं। व्यक्ति, समाज और व्यवस्था का यह दायित्व है कि वे इस तरह के लोगों को किसी भी तरह स्थापित न होने दें, बल्कि उनके साथ उसी तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए जिस तरह कि किसी भयानक संक्रमर् िसे ग्रस्त रोगी के साथ किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति का यह दायित्व है कि वह समाज को स्वस्थ, सुंदर और प्रेमपूरर््ि बनाए। 

पर्यायवाची शब्द तक नहीं मिलता

समलैंगिकता के बारे में वैदिक साहित्य-पुरार्,ि उपनिषदों में उल्लेख तक नहीं मिलता। इसका कोई पर्यायवाची शब्द भी संस्कृत में नहीं मिलता। लेकिन यह बात भी केवल पुरुषों के आपसी संबंधों पर लागू होती है। महिलाओं पर लागू नहीं होती। 

एक पुस्तक भी अंग्रेजी में उपलब्ध है, जिसका नाम है ः इनवेजन आन द सेक्रेड(पवित्र पर आक्रमर्)ि। यह 600 पेज की किताब है। इसमें पश्चिम के लोगों ने रिसर्च की है। इसमें कई बेहूदा बातें लिखी हैं।

हमारे धर्म और संस्कृति में सेक्स का संबंध काम पुरूषार्थ से है। काम पुरूषार्थ या रति का प्रयोजन संतति उत्पन्न करना है। रघुवंशी राजा संतति के लिए गृहस्थ में प्रवेश करते थे। राजा भोग के प्रयोजन से क्या करते थे यह व्यवहार की बात अलग है, रति का प्रयोजन संतति ही रहा, यह बात प्रमुख है।

समलिंगी गुर् िरसाभास है। श्रृंगार रस नहीं है इसमें, यह रस का आभास है। साहित्य शास्त्र विपरीत रति को भी रसाभास कहता है। इसी तरह पशु-पक्षियों के साथ संबंध को भी रसाभास कहा है। साहित्य का ही आधार है जिससे हम कह सकते हैं कि यह व्यवहार हमारी परंपरा का नहीं है। इसको कहीं भी हमने श्रृंगार या रति नहीं माना। काम पुरुषार्थ नहीं माना। ऐसा संसार में होता है, जिसे हमने रसाभास लेबल दिया। लगता है कि इसमें प्रेम हो रहा है वस्तुतः यह प्रेम का स्वरूप नहीं है।

अनेक धर्माचार्य खिलाफ

  दूसरी तरफ अनेक धर्माचार्य आज अप्राकृतिक यौन संबंधों व समलैंगिकता के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं। बाबा रामदेव से लेकर मुसलमान, जैन, सिख, ईसाई सभी संप्रदायों के धर्म गुरुओं ने साझे मंच से इसका विरोध शुरू कर दिया है।  उनका तर्क है कि अप्राकृतिक यौनाचर अनैतिक कृत्य है जिसे वैधानिक छूट नहीं दी जा सकती। दूसरे भी अनेक महत्वपूरर््ि व्यक्तियों व कुछ राजनेताओं ने भी ऐसे संबंधों के खिलाफ जोरदार हमला बोला है। 

हालांकि कुछ धर्माचार्य खुद ऐसे हैं, जिन्हें धर्माचार्य के नाम पर कलंक कहा जा सकता है। सारी दुनिया में अगर अप्राकृतिक यौन संबंधों की जांच गहराई से करवाई जाए तो उसमें कुछ धर्माचार्य भी शामिल मिलेंगे। एक कृष्र्भिक्त संस्था के धर्मगुरू किशोरों के साथ यौनाचार के आरोप में अमरीका में एक बड़ा मुकदमा हार चुके हंैं और उन्हें सैंकड़ों करोड़ रूपए का मुआवजा देना पड़ रहा है। फौज, पुलिस और जल सेना में जहां स्त्री संग संभव नहीं होता, इस तरह के यौनाचार के मामले अक्सर सामने आते रहते हैं।

लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न उठता है कि क्या अप्राकृतिक यौनाचार नैतिक रूप से उचित है? क्या इसे कानूनी मान्यता देनी चाहिए? क्या इस विषय पर इस तरह खुली बहस की आवश्यकता है? क्या अप्राकृतिक यौनाचार से समाज में एड्स जैसी बिमारियां नहीं बढ़ रहीं?

इसका सीधा सा जवाब है कि नैतिकता के मापदंड अलग-अलग समाजों में अलग-अलग होते हैं। फिर भी यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अप्राकृतिक यौनाचार एक स्वस्थ मानसिकता का परिचायक नहीं। किसी व्यक्ति के इस तरफ झुकने के कारर् िजो भी रहे हों पर इस तरह की मानसिकता वाले लोग समाज में स्वीकार्य नहीं हैं।  इस कृत्य को नैतिक तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। पर जिस तरह समाज में ज्यादातर लोग अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग स्तर पर नैतिक या अनैतिक आचरर् िकरते हैं, ऐसे ही सैक्स के मामले में भी अलग-अलग स्तर हो सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि कोई समलैंगिक है या विषम लैंगिक, यह समाज में मुक्त चर्चा का विषय आखिर क्यों होना चाहिए? क्या पति-पत्नी के शयन कक्ष के रिश्तों पर सड़कों पर बहस होती है? अगर नहीं तो दो युवकों या युवतियों के निजी संबंध को लेकर इतना बवाल मचाने की क्या जरूरत है?

पश्चिमी देशों की नकल आखिर क्यों

धर्म गुरु पूछते हैं कि आखिर हम पश्चिमी मानसिकता की नकल क्यों कर रहे हैं?  ऐसे लोग जो साल में 364 दिन तो अपने मां-बाप को ‘ओल्ड ऐज होम’ में पटक देते हैं और एक दिन ‘मदर्स डे’ या ‘फादर्स डे’ का जश्न मनाकर अपने मातृ या पितृ प्रेम का इजहार करते है, उनकी नकल आखिर किसलिए करनी है, जबकि हमारी संस्कृति बहुत रिच है। ये वे लोग हैं, जिनके पोस्टरों पर छपा होता है ‘इफ यू लव समवन - शो इट’। जबकि हमारे देश में भी समलंैंगिकता को लेकर साहित्य, चित्र व वास्तुकला उपलब्ध है। खुजराहो के मन्दिर में ही इस तरह का एक शिल्प है जहां गाइड बताते हैं कि यह गुरू व शिष्य में और एक सिपाही व घोड़े में अप्राकृतिक यौनाचार हो रहा है और यह गलत हो रहा है, ऐसा नहीं होना चाहिए। पर इस विषय पर चर्चा करने की या उस पर शोर मचाने की हमारे यहाँ कभी प्रथा नहीं रही। आज भी अगर सर्वेक्षण किया जाए तो इस तरह का यौनाचार करने वालों की संख्या भारत में नगण्य है। झूठे आंकड़े प्रस्तुत करके भरमाया जरूर जा सकता है।

अधिकांश धर्म गुरु आज इस बात पर जोर दे रहे हैं कि इस पूरे मामले पर समाज कल्यार् िमंत्रालय एक गहन अध्ययन करवाकर इन लोगों की समस्याओंेंें का व्यवहारिक निदान खोजने का प्रयास करे। जो जैसे जीना चाहता है जिए, पर उसका भाैंडा प्रदर्शन न हो। वैसे भी लोग अपने निजी जीवन में क्या करते हैं, यह कोई सड़क पर बताने नहीं आता। इसे सामाजिक दायरों में बहस का विषय न बनाया जाए। यह ठीक वही बात हुई कि देश में 80 फीसदी लोग पीने के गंदे पानी के कारर् िबीमार पड़ते हैं पर देशभर में हल्ला एड्स का मचा हुआ है। न जाने कैसी महामारी आ गई जो पिछले 10 वर्षों से स्वास्थ्य मंत्रालय की सबसे बड़ी प्राथमिकता बनी हुई है। मजाक ये कि अगर नाको के 10 साल पुराने आंकड़े देखें तो अब तक भारत में सारी आबादी को एड्स से मर जाना चाहिए था। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और न होगा। सारा खेल कुछ और ही है। इसी तरह समाज में बढ़ते सैक्स और हिंसा पर मीडिया में बवाल मचाकर एक पूरा उद्योग फल-फूल रहा है। वह उद्योग एड्स जैसे मुद्दों को हवा देकर अपना उल्लू सीधा करता रहता है। धर्म गुरु कहते हैं कि इस पूरे मामले को भी इसी दृष्टि से समझना चाहिए। हमारे सामने इससे कहीं गंभीर समस्याएं मुंह बाए खड़ी हंैं और हम उनकी तरफ देख भी नहीं रहे। अप्राकृतिक यौन संबंधों या समलैंगिकता के मुद्दे को बिल्कुल भी महत्व नहीं देना चाहिए तथा अपने सांस्कृतिक मूल्यों को जिंदा रखने का पूरा प्रयास करना चाहिए।

J.K.Verma Writer

9996666769

jkverma777@gmail.com

टिप्पणियाँ

Homosexuality and Unnatural Sex Relations : J..K.Verma

Homosexuality and Unnatural Sex Relations-22 : अप्राकृतिक यौन संबंधों व समलैंगिकता से जुड़े सवाल-जवाब

Homosexuality and Unnatural Sex Relations-23 : समलैगिंक बनो और जो कुकर्म करने हैं, करो

Homosexuality and Unnatural Sex Relations-21 : अप्राकृतिक संबंधों के लिए नशीली दवाएं, इंजेक्शन व उत्तेजक दवाइयां